संधिआ वेले का हुक्मनामा – 2 मई 2024
सोरठि महला ४ ॥ हरि सिउ प्रीति अंतरु मनु बेधिआ हरि बिनु रहणु न जाई ॥ जिउ मछुली बिनु नीरै बिनसै तिउ नामै बिनु मरि जाई ॥१॥ मेरे प्रभ किरपा जलु देवहु हरि नाई ॥ हउ अंतरि नामु मंगा दिनु राती नामे ही सांति पाई ॥ रहाउ ॥ जिउ चात्रिकु जल बिनु बिललावै बिनु जल पिआस न जाई ॥ गुरमुखि जलु पावै सुख सहजे हरिआ भाइ सुभाई ॥२॥
हे भाई! परमात्मा से प्यार के द्वारा जिस मनुख का हृदय जिस मनुख का मन भीग जाता है, वह परमात्मा (की याद) के बिना रह नहीं सकता। जैसे पानी के बिना मछली मर जाती है, उसी प्रकार मनुख प्रभु के नाम के बिना अपनी आत्मिक मौत आ गयी समझता है॥१॥ हे मेरे प्रभु! (मुझे अपनी) कृपा का जल दे। हे हरी! मुझे अपनी सिफत-सलाह की दात दे। मैं अपने हृदय में दिन रात तेरा नाम (ही) मांगता हूँ, (क्योंकि तेरे) नाम में जुड़ने से ही आत्मिक ठंडक प्राप्त हो सकती है॥रहाउ॥ हे भाई! जैसे वर्षा-जल के बिना पपीहा बिलकता है, वर्षा की बूँद के बिना उस की प्यास नहीं मिटती, उसी प्रकार जो मनुख गुरु की सरन आता है, तब वह प्रभु की बरकत से आत्मिक जीवन वाला बनता है, जब वह आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल (गुरु पास से) प्राप्त करता है॥२॥