अमृत वेले का हुक्मनामा – 10 जनवरी 2024
सलोकु मः ३ ॥ सतिगुरि मिलिऐ भुख गई भेखी भुख न जाइ ॥ दुखि लगै घरि घरि फिरै अगै दूणी मिलै सजाइ ॥ अंदरि सहजु न आइओ सहजे ही लै खाइ ॥ मनहठि जिस ते मंगणा लैणा दुखु मनाइ ॥ इसु भेखै थावहु गिरहो भला जिथहु को वरसाइ ॥ सबदि रते तिना सोझी पई दूजै भरमि भुलाइ ॥ पइऐ किरति कमावणा कहणा कछू न जाइ ॥ नानक जो तिसु भावहि से भले जिन की पति पावहि थाइ ॥१॥
गुरु को मिलने से ही (मनुख के मन की ) भुख दूर हो सकती है, भेष बनाने से तृष्णा नहीं जाती; ( भेखी साधू तृष्णा के ) दुःख में कलापता है, घर घर भटकता फिरता है, और परलोक में इससे भी ज्यादा सजा भुगतता है। भेखी साधू के मन में शांति नहीं आती, जिस शांति की बरकत से उसे किसी से जो कुछ मिले, ले कर खा ले ( भाव,तृप्त हो जाए); पर मन के हठ के आसरे (भिखिया ) मांगने से ( दोनों तरफ से) कलेश पैदा कर के ही भिखिया मिलती है। इस भेष से घरस्थी अच्छा है, क्योकि यहाँ से मनुख अपनी आस पूरी कर सकता है। जो मनुख गुरु के शब्द में रंगे जाते है, उन को ऊँची सोझी प्राप्त होती है; पर, जो माया में फँसे रहते है, वह भटकते है। पिछले किये कर्मों (के संस्कारों अनुसार) ही कार-कमाने पड़ते हैं। इस बारे में कुछ और क्या कहा जा सकता है? हे नानक! जो जीव उस प्रभु को प्यारे लगते है, वो ही अच्छे हैं, क्योंकि, हे प्रभु! तुम ही उनकी लाज, (इज्ज़त) रखते हो॥१॥