अमृत ​​वेले का हुक्मनामा – 2 अक्टूबर 2023

सोरठि महला ९ ॥ मन की मन ही माहि रही ॥ ना हरि भजे न तीरथ सेवे चोटी कालि गही ॥१॥ रहाउ ॥ दारा मीत पूत रथ स्मपति धन पूरन सभ मही ॥ अवर सगल मिथिआ ए जानउ भजनु रामु को सही ॥१॥ फिरत फिरत बहुते जुग हारिओ मानस देह लही ॥ नानक कहत मिलन की बरीआ सिमरत कहा नही ॥२॥२॥

अर्थ: (हे भाई! देखो, माया धारी की मंद-भागता! उस के) मन की आश मन में ही रह गई। ना उस ने परमात्मा का भजन किया, ना ही उस ने संत जनों की सेवा की, और, मौत ने बोदी आ पकड़ी ॥१॥ रहाउ ॥ हे भाई! स्त्री, मित्र, पुत्र, गाड़ियाँ, माल-असबाब, धन-पदार्थ सारी ही धरती – यह सब कुछ नाशवान समझो। परमात्मा का भजन (ही) असली (मित्र) है ॥१॥ हे भाई! कई युग (जूनों में) भटक भटक कर तूँ थक गया था। (अब) तुझे मनुष्या शरीर मिला है। नानक जी कहते हैं – (हे भाई! परमात्मा को) मिलने की यही बारी है, अब तूँ सिमरन क्यों नहीं करता ? ॥२॥२॥


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