अमृत वेले का हुक्मनामा – 19 अगस्त 2023
सोरठि महला १ घरु १ असटपदीआ चउतुकी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दुबिधा न पड़उ हरि बिनु होरु न पूजउ मड़ै मसाणि न जाई ॥ त्रिसना राचि न पर घरि जावा त्रिसना नामि बुझाई ॥ घर भीतरि घरु गुरू दिखाइआ सहजि रते मन भाई ॥ तू आपे दाना आपे बीना तू देवहि मति साई ॥१॥ मनु बैरागि रतउ बैरागी सबदि मनु बेधिआ मेरी माई ॥ अंतरि जोति निरंतरि बाणी साचे साहिब सिउ लिव लाई ॥ रहाउ ॥ असंख बैरागी कहहि बैराग सो बैरागी जि खसमै भावै ॥ हिरदै सबदि सदा भै रचिआ गुर की कार कमावै ॥ एको चेतै मनूआ न डोलै धावतु वरजि रहावै ॥ सहजे माता सदा रंगि राता साचे के गुण गावै ॥२॥ मनूआ पउणु बिंदु सुखवासी नामि वसै सुख भाई ॥ जिहबा नेत्र सोत्र सचि राते जलि बूझी तुझहि बुझाई ॥ आस निरास रहै बैरागी निज घरि ताड़ी लाई ॥ भिखिआ नामि रजे संतोखी अम्रितु सहजि पीआई ॥३॥ दुबिधा विचि बैरागु न होवी जब लगु दूजी राई ॥ सभु जगु तेरा तू एको दाता अवरु न दूजा भाई ॥ मनमुखि जंत दुखि सदा निवासी गुरमुखि दे वडिआई ॥ अपर अपार अगम अगोचर कहणै कीम न पाई ॥४॥ सुंन समाधि महा परमारथु तीनि भवण पति नामं ॥ मसतकि लेखु जीआ जगि जोनी सिरि सिरि लेखु सहामं ॥ करम सुकरम कराए आपे आपे भगति द्रिड़ामं ॥ मनि मुखि जूठि लहै भै मानं आपे गिआनु अगामं ॥५॥ जिन चाखिआ सेई सादु जाणनि जिउ गुंगे मिठिआई ॥ अकथै का किआ कथीऐ भाई चालउ सदा रजाई ॥ गुरु दाता मेले ता मति होवै निगुरे मति न काई ॥ जिउ चलाए तिउ चालह भाई होर किआ को करे चतुराई ॥६॥ इकि भरमि भुलाए इकि भगती राते तेरा खेलु अपारा ॥ जितु तुधु लाए तेहा फलु पाइआ तू हुकमि चलावणहारा ॥ सेवा करी जे किछु होवै अपणा जीउ पिंडु तुमारा ॥ सतिगुरि मिलिऐ किरपा कीनी अम्रित नामु अधारा ॥७॥ गगनंतरि वासिआ गुण परगासिआ गुण महि गिआन धिआनं ॥ नामु मनि भावै कहै कहावै ततो ततु वखानं ॥ सबदु गुर पीरा गहिर ग्मभीरा बिनु सबदै जगु बउरानं ॥ पूरा बैरागी सहजि सुभागी सचु नानक मनु मानं ॥८॥१॥
अर्थ :- मैं परमात्मा के बिना किसी ओर आसरे की खोज में नहीं पड़ता, मैं भगवान के बिना किसी ओर को नहीं पूजता, मैं कहीं समाध और शमशान में भी नहीं जाता । माया की त्रिशना में फँस के मैं (परमात्मा के दर के बिना) किसी ओर घर में नहीं जाता, मेरी मायिक त्रिशना परमात्मा के नाम ने मिटा दी है । गुरु ने मुझे मेरे हृदय में ही परमात्मा का निवास-स्थान दिखा दिया है, और अडोल अवस्था में रंगे हुए मेरे मन को वह सहिज-अवस्था अच्छी लग रही है। हे मेरे साईं ! (यह सब तेरी ही कृपा है) तूं आप ही (मेरे दिल की) जानने-वाला हैं; आप ही पहचानने वाला हैं, तूं आप ही मुझे (अच्छी) मति देता हैं (जिस करके तेरा दर छोड़ के ओर तरफ नहीं भटकता) ।1। हे मेरी माँ ! मेरा मन गुरु के शब्द में विझ गया है (पिरोया गया है । शब्द की बरकत के साथ मेरे अंदर परमात्मा से विछोड़े का अहिसास पैदा हो गया है) । वही मनुख (असल) त्यागी है जिस का मन परमात्मा के बिरहों-रंग में रंगा गया है । उस (बैरागी) के अंदर भगवान की जोति जग पड़ती है, वह एक-रस सिफ़त-सालाह की बाणी में (मस्त रहता है), सदा कायम रहने के लिए स्वामी-भगवान (के चरणों में) उस की सुरति जुड़ी रहती है ।1 ।रहाउ। अनेकों ही वैरागी वैराग की बाते करते हैं, पर असल वैराग वह है जो (परमात्मा के बिरहों-रंग में इतना रंगा हुआ है कि वह) खसम-भगवान को प्यारा लगता है, वह गुरु के शब्द के द्वारा अपने हृदय में (परमात्मा की याद को बसाता है और) सदा परमात्मा के डर-अदब में मस्त (रह के) गुरु की बताई हुई कार करता है । वह बैरागी सिर्फ परमात्मा को याद करता है (जिस करके उस का) मन (माया वाले तरफ) नहीं डोलता, वह बैरागी (माया की तरफ) दौड़ते मन को रोक के (प्रभू-चरणो में) जोड़ी रखता है । अडोल अवस्था में मस्त वह बैरागी सदा (भगवान के नाम-) रंग में रंगा रहता है, और सदा-थिर भगवान की सिफ़त-सालाह करता है ।2। हे भाई! (जिस मनुष्य का) चंचल मन रक्ती भर भी आत्मिक आनंद में निवास देने वाले नाम में बसता है (वह मनुष्य असल बैरागी है, और वह बैरागी) आत्मिक आनंद लेता है। हे प्रभु! तूने स्वयं (उस वैरागी को जीवन के सही रास्ते की) समझ दी है, (जिसकी इनायत से उसकी तृष्णा-) अग्नि बुझ गई है, और उसकी जीभ उसकी आँखें (आदि) इंद्रिय सदा-स्थिर (हरि-नाम) में रंगे रहते हैं। वह बैरागी दुनिया की आशाओं से निर्मोह हो के जीवन व्यतीत करता है, वह (दुनियावी घर-धाट के अपनत्व को त्याग के) उस घर में तवज्जो जोड़े रखता है जो सच-मुच उसका अपना ही रहेगा। ऐसे बैरागी (गुरु-दर से मिली) नाम-भिक्षा से अघाए रहते हैं, तृप्त रहते हैं, संतुष्ट रहते हैं (क्योंकि उनको गुरु ने) अडोल आत्मिक अवस्था में टिका के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पिला दिया है।3। जब तक (मन में) रक्ती भर भी कोई और झाक है किसी और आसरे की तलाश है तब तक विरह अवस्था पैदा नहीं हो सकती। (पर हे प्रभु! ये विरह की) दाति देने वाला एक तू खुद ही है, तेरे बिना कोई और (ये दाति) देने वाला नहीं है, और ये सारा जगत तेरा अपना ही (रचा हुआ) है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सदा दुख में टिके रहते हैं, जो लोग गुरु की शरण पड़ते हैं उनको प्रभु (नाम की दाति दे के) आदर-सम्मान बख्शता है। उस बेअंत अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर प्रभु की कीमत (जीवों के) बयान करने से नहीं बताई जा सकती (उसके बराबर का और कोई कहा नहीं जा सकता)।4। परमात्मा एक ऐसी आत्मिक अवस्था का मालिक है कि उस पर माया के फुरने असर नहीं डाल सकते, वह तीनों ही भवनों का मालिक है, उसका नाम जीवों के लिए महान ऊँचा श्रेष्ठ धन है। जगत में जितने भी जीव जन्म लेते हैं उनके माथे पर (उनके किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार परमात्मा की रज़ा में ही) लेख (लिखा जाता है, हरेक जीव को) अपने-अपने सिर पर लिखा लेख सहना पड़ता है। परमात्मा स्वयं ही (साधारण) काम और अच्छे काम (जीवों से) करवाता है, खुद ही (जीवों के हृदय में अपनी) भक्ति दृढ़ करता है। अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु खुद ही (जीवों को अपनी) गहरी सांझ बख्शता है। (सच्चा वैरागी) परमात्मा के डर-अदब में रच जाता है, उसके मन में और मुँह में (पहले जो भी विकारों की निंदा आदि की) मैल (होती है वह) दूर हो जाती है।5। जिस मनुष्यों ने (परमात्मा के नाम का रस) चखा है, (उसका) स्वाद वही जानते हैं (बता नहीं सकते), जैसे गूंगे मनुष्य की खाई हुई मिठाई (का स्वाद गूंगा खुद ही जानता हे, किसी को बता नहीं सकता)। हे भाई! नाम-रस है ही अकथ, बयान किया नहीं जा सकता। (मैं तो सदा यही तमन्ना रखता हूँ कि) मैं उस मालिक प्रभु की रजा में चलूँ। (पर रजा में चलने की) सूझ भी तब ही आती है जब गुरु उस दातार प्रभु से मिला दे। जो आदमी गुरु की शरण नहीं पड़ा, उसे ये समझ बिल्कुल भी नहीं आती। हे भाई! कोई आदमी अपनी समझदारी पर गुमान नहीं कर सकता, जैसे-जैसे परमात्मा हम जीवों को (जीवन-राह पर) चलाता है वैसे वैसे ही हम चलते हैं।6। हे अपार प्रभु! अनेक जीव भटकना में (डाल के तूने) कुमार्ग पर डाले हुए हैं, अनेक जीव तेरी भक्ति (के रंग) में रंगे हुए हैं: ये (सब) खेल तेरा (रचा हुआ) है। जिस तरफ तूने जीवों को लगाया हुआ है वैसा ही फल जीव भोग रहे हैं। तू (सब जीवों को) अपने हुक्म में चलाने के समर्थ है। (मेरे पास) अगर कोई चीज मेरी अपनी हो तो (मैं ये कहने का फख़र कर सकूँ कि) मैं तेरी सेवा कर रहा हूँ, पर मेरा ये जीवन भी तो तेरा ही दिया हुआ है और मेरा शरीर भी तेरी ही दाति है। अगर गुरु मिल जाए तो वह कृपा करता है और आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम मुझे (जिंदगी का) आसरा देता है।7। हे नानक! जो मनुष्य सदा ऊँचे आत्मिक मण्डल में बसता है (तवज्जो टिकाए रखता है) उसके अंदर आत्मिक गुण प्रकट होते हैं, आत्मिक गुणों से वह गहरी सांझ डाले रखता है, आत्मिक गुणों में उसकी तवज्जो जुड़ी रहती है (वही मनुष्य पूरन त्यागी है)। उसके मन को परमात्मा का नाम प्यारा लगता है, वह (खुद नाम) स्मरण करता है (और लोगों को स्मरण करने के लिए) प्रेरित करता है। वह सदा जगत-मूल प्रभु की ही महिमा करता है। गुरु पीर के शब्द को (हृदय में टिका के) वह गहरे जिगरे वाला बन जाता है। पर गुरु शब्द से टूट के जगत (माया के मोह में) कमला (हुआ फिरता) है। वह पूर्ण त्यागी मनुष्य अडोल आत्मिक अवस्था में टिक के अच्छे भाग्य वाला बन जाता है, उसका मन सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु (की याद को अपना जीवन-निशाना) मानता है।8।1।