संधिआ वेले का हुक्मनामा – 24 जुलाई 2023

धनासरी महला ९ ॥ अब मै कउनु उपाउ करउ ॥ जिह बिधि मन को संसा चूकै भउ निधि पारि परउ ॥१॥ रहाउ ॥ जनमु पाइ कछु भलो न कीनो ता ते अधिक डरउ ॥ मन बच क्रम हरि गुन नही गाए यह जीअ सोच धरउ ॥१॥ गुरमति सुनि कछु गिआनु न उपजिओ पसु जिउ उदरु भरउ ॥ कहु नानक प्रभ बिरदु पछानउ तब हउ पतित तरउ ॥२॥४॥९॥९॥१३॥५८॥४॥९३॥

अर्थ : हे भाई! अब मैं कौन सा यतन करूँ (जिससे मेरे) मन का सहम खत्म हो जाए, और, मैं संसार-समुंद्र से पार लांघ जाऊँ।1। रहाउ। हे भाई! मानस जन्म प्राप्त करके मैंने कोई भलाई नहीं की, इसलिए मैं बहुत डरता रहता हूँ। मैं (अपने) अंदर (हर वक्त) यही चिंता करता रहता हूँ कि मैंने अपने मन से अपने वचन से, कर्म से (कभी भी) परमात्मा के गुण नहीं गाए।1। हे भाई! गुरू की मति सुन के मेरे अंदर आत्मिक जीवन की कुछ भी सूझ पैदा नहीं हुई, मैं पशू की तरह (रोज) अपना पेट भर लेता हूँ। हे नानक! कह– हे प्रभू! मैं विकारी तब ही (संसार-समुंद्र से) पार लांघ सकता हूँ अगर तू अपना मूल कदीमों वाला प्यार वाला स्वभाव याद रखे।2।4।9।9।13।58।4।93।


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