संधिआ वेले का हुक्मनामा – 9 नवंबर 2022
सलोकु मः ३ सतिगुर की सेवा सफलु है जे को करे चितु लाइ ॥ मनि चिंदिआ फलु पावणा हउमै विचहु जाइ ॥ बंधन तोड़ै मुकति होइ सचे रहै समाइ ॥ इसु जग महि नामु अलभु है गुरमुखि वसै मनि आइ ॥ नानक जो गुरु सेवहि आपणा हउ तिन बलिहारै जाउ ॥१॥ मः ३ ॥ मनमुख मंनु अजितु है दूजै लगै जाइ ॥ तिस नो सुखु सुपनै नही दुखे दुखि विहाइ ॥ घरि घरि पड़ि पड़ि पंडित थके सिध समाधि लगाइ ॥ इहु मनु वसि न आवई थके करम कमाइ ॥ भेखधारी भेख करि थके अठिसठि तीरथ नाइ ॥
अर्थ :-अगर कोई मनुख चित् लगा के सेवा करे, तो सतिगुरु की (बताई) सेवा जरूर फल लगाती है; मन-इच्छित फल मिलता है, अहंकार मन में से दूर होता है; (गुरु की बताई कार माया के) बंधनो को तोड़ देती है (बंधनो से) खलासी हो जाती है और सच्चे हरि में मनुख समाया रहता है। इस संसार में हरि का नाम दुरढूँढ है, सतिगुरु के सनमुख मनुख के मन में आ के बसता है; हे नानक ! (बोल-) मैं सदके हूँ उन से जो आपने सतिगुरु की बताई कार करते हैं।1। मनमुख का मन उस के काबू से बाहर है, क्योंकि वह माया में जा के लगा हुआ है; (सिटा यह कि) उस को स्वपन में भी सुख नहीं मिलता, (उस की उम्र) सदा दु:ख में ही गुजरती है। अनेकों पंडित लोक पढ़ पढ़ के और सिध समाधीआ लगा के थक गए हैं, कई कर्म कर के थक गए हैं; (पड़ने से और समाधीओं के साथ) यह मन काबू नहीं आता। भेख करने वाले मनुख (भावार्थ, साधू लोक) कई भेख कर के और अठासठ तीरर्थों और नहा के थक गए हैं; हऊमै और भ्रम में भुले हुआ को मन की सार नहीं आई।