संधिआ वेले का हुक्मनामा – 10 जनवरी 2023
रागु सोरठि बाणी भगत कबीर जी की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ संतहु मन पवनै सुखु बनिआ ॥ किछु जोगु परापति गनिआ ॥ रहाउ ॥ गुरि दिखलाई मोरी ॥ जितु मिरग पड़त है चोरी ॥ मूंदि लीए दरवाजे ॥ बाजीअले अनहद बाजे ॥१॥ कु्मभ कमलु जलि भरिआ ॥ जलु मेटिआ ऊभा करिआ ॥ कहु कबीर जन जानिआ ॥ जउ जानिआ तउ मनु मानिआ ॥२॥१०॥
अर्थ: राग सोरठि, घर १ में भगत कबीर जी की बाणी। अकाल पुरख एक है और सतिगुरू की कृपा द्वारा मिलता है। हे संत जनों। (मेरे) पवन (जैसे चंचल) मन को (अब) सुख मिल गया है, (अब यह मन प्रभू का मिलाप) हासिल करने योग्य थोडा बहुत समझा जा सकता है ॥ रहाउ ॥ (क्योंकि) सतिगुरू ने (मुझे मेरी वह) कमज़ोरी दिखा दी है, जिस कारण (कामादिक) पशु अडोल ही (मुझे) आ दबाते थे। (सो, मैं गुरू की मेहर से शरीर के) दरवाज़े (ज्ञान-इन्द्रियाँ: पर निंदा, पर तन, पर धन आदिक की तरफ़ से) बंद कर लिए हैं, और (मेरे अंदर प्रभू की सिफ़त-सलाह के) बाजे एक-रस बजने लग गए हैं ॥१॥ (मेरा) हृदय-कमल रूप घड़ा (पहले विकारों के) पानी से भरा हुआ था, (अब गुरू की बरकत से मैंने वह) पानी गिरा दिया है, और (हृदय को) ऊँचा कर दिया है। कबीर जी कहते हैं – (अब) मैंने दास ने (प्रभू के साथ) जान-पहचान कर ली है, और जब से यह साँझ पड़ी है, मेरा मन (उस प्रभू में ही) लीन हो गया है ॥२॥१०॥
WaheGuruJi Ka Khalsa WaheGuruJi Ki Fateh