संधिआ वेले का हुक्मनामा – 28 फरवरी 2025
सोरठि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
संतहु मन पवनै सुखु बनिआ ॥ किछु जोगु परापति गनिआ ॥ रहाउ ॥ गुरि दिखलाई मोरी ॥ जितु मिरग पड़त है चोरी ॥ मूंदि लीए दरवाजे ॥ बाजीअले अनहद बाजे ॥१॥ कु्मभ कमलु जलि भरिआ ॥ जलु मेटिआ ऊभा करिआ ॥ कहु कबीर जन जानिआ ॥ जउ जानिआ तउ मनु मानिआ ॥२॥१०॥
अर्थ: हे संत जनो! (मेरे) पवन (जैसे चंचल) मन को (अब) सुख मिल गया है, (अब ये मन प्रभू का मिलाप) हासिल करने के लायक थोड़ा बहुत समझा जा सकता है। रहाउ।
(क्योंकि) सतिगुरू ने (मुझे मेरी वह) कमजोरी दिखा दी है जिसके कारण (कामादिक) पशू अडोल ही (मुझे) आ दबाते थे; (सो, मैंने गुरू की मेहर से शरीर के) दरवाजे (ज्ञानेन्द्रियों को: पर निंदा, पर तन, पर धन आदि से) बँद कर लिया है और (मेरे अंदर प्रभू की सिफत सालाह के) बाजे एक-रस बजने लग पड़े हैं।1।
(मेरा) हृदय-कमल रूपी घड़ा (पहले विकारों से) पानी से भरा हुआ था, (अब गुरू की बरकति से मैंने वह) पानी डोल दिया है और (हृदय को) ऊँचा उठा लिया है। हे दास कबीर! (अब) कह– मैंने (प्रभू से) जान-पहचान कर ली है, और जब से ये सांझ डाली है, मेरा मन (उस प्रभू में) गिझ गया है।2।10।