अमृत वेले का हुक्मनामा – 2 जनवरी 2025
सलोक मः २ ॥ नानक अंधा होइ कै रतना परखण जाइ ॥ रतना सार न जाणई आवै आपु लखाइ ॥१॥ मः २ ॥ रतना केरी गुथली रतनी खोली आइ ॥ वखर तै वणजारिआ दुहा रही समाइ ॥ जिन गुणु पलै नानका माणक वणजहि सेइ ॥ रतना सार न जाणनी अंधे वतहि लोइ ॥२॥ पउड़ी ॥ नउ दरवाजे काइआ कोटु है दसवै गुपतु रखीजै ॥ बजर कपाट न खुलनी गुर सबदि खुलीजै ॥ अनहद वाजे धुनि वजदे गुर सबदि सुणीजै ॥ तितु घट अंतरि चानणा करि भगति मिलीजै ॥ सभ महि एकु वरतदा जिनि आपे रचन रचाई ॥१५॥ सलोक मः २ ॥ अंधे कै राहि दसिऐ अंधा होइ सु जाइ ॥ होइ सुजाखा नानका सो किउ उझड़ि पाइ ॥ अंधे एहि न आखीअनि जिन मुखि लोइण नाहि ॥ अंधे सेई नानका खसमहु घुथे जाहि ॥१॥ मः २ ॥ साहिबि अंधा जो कीआ करे सुजाखा होइ ॥ जेहा जाणै तेहो वरतै जे सउ आखै कोइ ॥ जिथै सु वसतु न जापई आपे वरतउ जाणि ॥ नानक गाहकु किउ लए सकै न वसतु पछाणि ॥२॥ मः २ ॥ सो किउ अंधा आखीऐ जि हुकमहु अंधा होइ ॥ नानक हुकमु न बुझई अंधा कहीऐ सोइ ॥३॥ पउड़ी ॥ काइआ अंदरि गड़ु कोटु है सभि दिसंतर देसा ॥ आपे ताड़ी लाईअनु सभ महि परवेसा ॥ आपे स्रिसटि साजीअनु आपि गुपतु रखेसा ॥ गुर सेवा ते जाणिआ सचु परगटीएसा ॥ सभु किछु सचो सचु है गुरि सोझी पाई ॥१६॥
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य खुद अंधा हो और चल पड़े रत्न परखने, वह रत्नों की कद्र तो जानता नहीं, पर अपने आप को उजागर करा आता है (भाव, अपना अंधापन जाहिर कर आता है)।1। प्रभु के गुण रूपी थैली सतिगुरु ने आ के खोली है, से गुत्थी बेचने वाले सतिगुरु और लेने वाले गुरमुख दोनों के हृदय में टिक रही है (भाव, दोनों को ये गुण प्यारे लग रहे हैं)। हे नानक! जिनके पास (भाव, हृदय में) प्रभु की महिमा के गुण मौजूद हैं वही मनुष्य ही नाम-रत्न का लेन-देन (व्यापार) करते हैं; पर जो इन रत्नों की कद्र नहीं जानते वे अंधों की तरह जगत में फिरते हैं।2। शरीर (मानो एक) किला है, इसकी नौ इन्द्रियों के रूप में गुप्त दरवाजे (प्रकट) हैं, और दसवाँ द्वार गुप्त रखा हुआ है; (उस दसवें दरवाजे के) किवाड़ बड़े कठोर हैं खुलते नहीं, खुलते (केवल) सतिगुरु के शब्द से ही हैं, (जब ये कठोर किवाड़ खुल जाते हैं तो, मानो,) एक-रस वाले बाजे बज पड़ते हैं जो सतिगुरु के शब्द के द्वारा सुने जाते हैं। (जिस हृदय में ये आनंद पैदा होता है) उस हृदय में (ज्ञान का) प्रकाश हो जाता है, प्रभु की भक्ति करके वह मनुष्य प्रभु में मिल जाता है। जिस प्रभु ने यह सारी रचना रची है वह सारे जीवों में व्यापक है (पर उस से मेल गुरु के द्वारा ही होता है)।15। अगर कोई अंधा मनुष्य (किसी और को) राह बताए तो (उस राह पर) वही चलता है जो खुद अंधा हो; हे नानक! आँख वाला मनुष्य (अंधे के कहने पर) गलत राह पर नहीं पड़ता। (पर आत्मिक जीवन में) ऐसे लोगों को अंधे नहीं कहा जाता जिनके मुँह पर आँखें नहीं हैं, हे नानक! अंधे वही हैं जो मालिक प्रभु से टूटे हुए हैं।1। जिस मनुष्य को मालिक-प्रभु ने स्वयं अंधा कर दिया है वह तब ही आँख वाला हो सकता है यदि प्रभु स्वयं (आँख वाला) बनाए, (नहीं तो, अंधा मनुष्य तो) जिस तरह की समझ रखता है उसी तरह किए जाता है चाहे उसको कोई सौ बार समझाए। जिस मनुष्य के अंदर ‘नाम’-रूप पदार्थ की समझ नहीं वहाँ अहंकार वाला व्यवहार ही समझो, (क्योंकि) हे नानक! गाहक जिस सौदे को पहचान ही नहीं सकता उसका वह वणज ही कैसे करे?।2। जो मनुष्य प्रभु की रजा में नेत्र-हीन हो गया उसको हम अंधा नहीं कहते, हे नानक! वह मनुष्य अंधा कहा जाता है जो रजा को समझता नहीं।3। (मनुष्य का) शरीर के अंदर (मनुष्य का हृदय-रूप) जिस प्रभु का किला है गढ़ है वह प्रभु सारे देश-देशांतरों में मौजूद है, सारे जीवों के अंदर परवेश करके उसने खुद ही (जीवों के अंदर) समाधि (ताड़ी) लगाई हुई है (वह खुद ही जीवों के अंदर टिका हुआ है)। प्रभु ने खुद ही सृष्टि रची है और खुद ही (उस सृष्टि में उसने अपने आप को) छुपाया हुआ है। उस प्रभु की सूझ सतिगुरु के हुक्म में चलने से आती है (तब ही) सच्चा प्रभु प्रकट होता है। है तो हर जगह सच्चा प्रभु खुद ही खुद, पर ये समझ सतिगुरु के द्वारा ही आती है।16।