संधिआ वेले का हुक्मनामा – 13 दसंबर 2024
सलोकु मः ४ ॥ अंतरि अगिआनु भई मति मधिम सतिगुर की परतीति नाही ॥ अंदरि कपटु सभु कपटो करि जाणै कपटे खपहि खपाही ॥ सतिगुर का भाणा चिति न आवै आपणै सुआइ फिराही ॥ किरपा करे जे आपणी ता नानक सबदि समाही ॥१॥ मः ४ ॥ मनमुख माइआ मोहि विआपे दूजै भाइ मनूआ थिरु नाहि ॥ अनदिनु जलत रहहि दिनु राती हउमै खपहि खपाहि ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा तिन कै निकटि न कोई जाहि ॥ ओइ आपि दुखी सुखु कबहू न पावहि जनमि मरहि मरि जाहि ॥ नानक बखसि लए प्रभु साचा जि गुर चरनी चितु लाहि ॥२॥ पउड़ी ॥ संत भगत परवाणु जो प्रभि भाइआ ॥ सेई बिचखण जंत जिनी हरि धिआइआ ॥ अम्रितु नामु निधानु भोजनु खाइआ ॥ संत जना की धूरि मसतकि लाइआ ॥ नानक भए पुनीत हरि तीरथि नाइआ ॥२६॥
अर्थ: (मनमुख के) हिरदे में अज्ञान है, (उस की) अकल (मति) नादान होती है और सतगुरु ऊपर उस को सिदक नहीं होता; मन में धोखा (होने के कारन संसार में भी) वह सारा धोखा ही धोखा समझता है। (मनमुख मनुष्य खुद) दुःखी होते हैं ( व ओरों को) दुखी करते हैं; सतिगुरु का हुकम उनके चित मे नही आता (मतलब,भाणा नही मांनते) आेर अपनी मत के पीछे भटकते रहते हैं ; नानक जी! जे हरी अपनी कॄपा करे ,ता ही वह गुरू के शब्द मे लीन होते हैं ॥१॥ माया के मोह मे फसे हुए मनमुख का मन माया के प्यार मे एक जगह नही टिकता। हर समय दिन रात (माया मे) सड़ते रहते हैं। अहंकार मे आप दुखी होते हैं ओर दुसरो को करते हैं। उनके अंदर लोभ रूपी बडा अंधेरा होता है, कोई मनुष उनके पास नही जाता। वह अपने अाप ही दुखी रहते हैं,कभी सुखी नही होते, सदा जन्म मरन के चक्करों मे पडे रहते हैं। नानक जी! जे वह गुरू के चरनो मे चित जोडन तो सचा हरी उनको माफ कर दे ॥२॥ जो मनुष्य प्रभू को प्यारे हैं, वह संत हैं, वह भगत हैं वही कबूल हैं। वही मनुष्य सही है जो हरी नाम जपते हैं। आतमिक जीवन देन वाला नाम ख़जाना-रूपी भोजन खाते हैं, ओर संतो की चरन-धूड़ अपने माथे पर लगाते हैं। नानक जी!(इस तरह के मनुष्य) हरी (के भजन-रूपी) तीर्थ मे नहाते हैं ओर पवित्र हो जाते हैं ॥२६॥