अमृत ​​वेले का हुक्मनामा – 9 दसंबर 2024

धनासरी महला १ ॥
जीवा तेरै नाइ मनि आनंदु है जीउ ॥ साचो साचा नाउ गुण गोविंदु है जीउ ॥ गुर गिआनु अपारा सिरजणहारा जिनि सिरजी तिनि गोई ॥ परवाणा आइआ हुकमि पठाइआ फेरि न सकै कोई ॥ आपे करि वेखै सिरि सिरि लेखै आपे सुरति बुझाई ॥ नानक साहिबु अगम अगोचरु जीवा सची नाई ॥१॥
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जीवा = जीऊँ, मैं जी पड़ता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है।
तेरे नाइ = तेरे नाम में जुड़ के।
जीउ = हे प्रभु जी!
सचो साचा = सदा ही स्थिर रहने वाला।
सिरजी = पैदा की है।
तिनि = उसी प्रभु ने।
गोई = नाश की है।
परवाणा = सदा। हुकमि = हुक्म अनुसार।
पठाइआ = भेजा हुआ।
फेरि न सकै = वापस नहीं कर सकता।
सिरि सिरि = हरेक जीव के सिर पर।
बुझाई = समझाता है।
अगम = अगम्य,पहुँच से दूर। अगोचरु = जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती।
सची नाई = सदा स्थिर रहने वाली महिमा बड़ाई करके।
नाई = बड़ाई, महिमा, उपमा, नाम की मशहूरी।
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अर्थ: हे प्रभु जी! तेरे नाम में जुड़ के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है, मेरे मन में खुशी पैदा होती है। हे भाई! परमात्मा का नाम सदा स्थिर रहने वाला है, प्रभु गुणों का खजाना है और धरती के जीवों के दिलों की जानने वाला है। गुरु का बख्शा हुआ ज्ञान बताता है कि विधाता प्रभु बेअंत है, जिसने ये सृष्टि पैदा की है, वही इसका नाश करता है। जब उसके हुक्म में भेजा हुआ आमंत्रण आता है तो कोई भी जीव उसके बुलावे को रोक नहीं सकता। परमात्मा स्वयं ही जीवों को पैदा करके आप ही संभाल करता है, आप ही हरेक जीव के सिर पर उसके किए कर्मों के अनुसार लेख लिखता है, खुद ही जीव को सही जीवन-राह की सूझ बख्शता है। मालिक-प्रभु अगम्य पहुँच से परे है, जीवों की ज्ञान-इंद्रिय की उस तक पहुँच नहीं हो सकती। हे नानक! उसके दर पर अरदास कर, और कह: हे प्रभु! तेरी सदा कायम रहने वाली महिमा करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है मुझे अपनी महिमा बख्श।१।
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तुम सरि अवरु न कोइ आइआ जाइसी जीउ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु भरमु चुकाइसी जीउ ॥ गुरु भरमु चुकाए अकथु कहाए सच महि साचु समाणा ॥ आपि उपाए आपि समाए हुकमी हुकमु पछाणा ॥ सची वडिआई गुर ते पाई तू मनि अंति सखाई ॥ नानक साहिबु अवरु न दूजा नामि तेरै वडिआई ॥२॥
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सरि = बराबर।
जाइसी = चला जाएगा। निबेड़ु = फैसला, खात्मा जनम-मरन के चक्कर का।
भरमु = भटकना।
चुकाए = दूर करता है।
कहाए = महिमा करवाता है।
अकथु = वह प्रभु जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते।
सच महि = सदा स्थिर प्रभु में।
सचु = सदा स्थिर प्रभु।
हुकमी हुकमु = हुक्म के मालिक का हुक्म।
साची = सदा स्थिर रहने वाली।
सखाई = साथी।
वडिआई = आदर।
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अर्थ: हे प्रभु जी! तेरे बराबर का और कोई नहीं है, और जो भी जगत में आया है, वह यहाँ से आखिर चला जाएगा तू ही सदा कायम रहने वाला है। जिस मनुष्य की भटकना गुरु दूर करता है, प्रभु के हुक्म अनुसार उसके जनम-मरण के चक्कर का खात्मा हो जाता है। गुरु जिसकी भटकना दूर करता है, उससे उस परमात्मा की महिमा करवाता है जिसके गुण बयान से परे हैं। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की याद में रहता है, सदा स्थिर प्रभु उसके हृदय में प्रगट हो जाता है। वह मनुष्य रजा के मालिक प्रभु का हुक्म पहचान लेता है और समझ लेता है कि प्रभु खुद ही पैदा करता है और खुद ही अपने में लीन कर लेता है। हे प्रभु! जिस मनुष्य ने तेरी महिमा की दाति गुरु से प्राप्त कर ली है, तू उसके मन में आ बसता है और अंत के समय भी उसका साथी बनता है। हे नानक! मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उस जैसा कोई और नहीं। उसके दर पर अरदास कर और कह: हे प्रभु! तेरे नाम में जुड़ने से लोक-परलोक में आदर मिलता है।२।
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तू सचा सिरजणहारु अलख सिरंदिआ जीउ ॥ एकु साहिबु दुइ राह वाद वधंदिआ जीउ ॥ दुइ राह चलाए हुकमि सबाए जनमि मुआ संसारा ॥ नाम बिना नाही को बेली बिखु लादी सिरि भारा ॥ हुकमी आइआ हुकमु न बूझै हुकमि सवारणहारा ॥ नानक साहिबु सबदि सिञापै साचा सिरजणहारा ॥३॥
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अलख = हे अदृष्ट!
सिरंदिआ = हे सिरंदे! हे पैदा करने वाले!
वाद = झगड़े।
दुइ राह = दो रास्ते भक्ति और माया।
सबाए = सारे जीव।
सिञापै = पहचाना जाता है।
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अर्थ: हे अदृष्य रचनहार! तू सदा स्थिर रहने वाला है और सब जीवों को पैदा करने वाला है। एक ही विधाता सारे जगत का मालिक है, उसने पैदा होना और मरना दो रास्ते चलाए हैं। उसी की रजा के अनुसार जगत में झगड़े बढ़ते हैं। दोनों रास्ते प्रभु ने ही चलाए हैं, सारे जीव उसी के हुक्म में है सारे जीव उसी के हुक्म में हैं, उसी के हुक्म अनुसार जगत पैदा होता व मरता रहता है। जीव नाम को भुला के माया के मोह का जहर-रूपी भार अपने सिर पर इकट्ठा किए जाता है, और ये नहीं समझता कि परमात्मा के नाम के बिना और कोई भी साथी मित्र नहीं बन सकता। जीव परमात्मा के हुक्म अनुसार जगत में आता है, पर माया के मोह में फंस के उस हुक्म को नहीं समझता। प्रभु आप ही जीवों को अपने हुक्म अनुसार सीधे रास्ते पर डाल के सँवारने में समर्थ है। हे नानक! गुरु के शब्द में जुड़ने से ये पहचान हो जाती है कि जगत का मालिक सदा-स्थिर रहने वाला है और सबको पैदा करने वाला है।३।
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भगत सोहहि दरवारि सबदि सुहाइआ जीउ ॥ बोलहि अम्रित बाणि रसन रसाइआ जीउ ॥ रसन रसाए नामि तिसाए गुर कै सबदि विकाणे ॥ पारसि परसिऐ पारसु होए जा तेरै मनि भाणे ॥ अमरा पदु पाइआ आपु गवाइआ विरला गिआन वीचारी ॥ नानक भगत सोहनि दरि साचै साचे के वापारी ॥४॥
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सोहहि = शोभते हैं।
दरवारि = दरबार में, प्रभु की हजूरी में।
सबदि = गुरु के शब्द से।
रसाइआ = एक सुर।
रसाए = एक सुर कर लेते हैं। तिसाए = प्यासे।
विकाणे = प्रभु के नाम से सदके होते हैं।
परसि परसिऐ = गुरु पारस को छूने से।
पारसु = एक पत्थर जो सब धातुओं को सोना बना देती है ऐसा माना गया है।
अमरा पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ आत्मिक मौत नहीं फटकती।
आपु = स्वै भाव।
वापारी = वणजारे।
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अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा की हजूरी में शोभते हैं, क्योंकि गुरु के शब्द की इनायत से वह अपने जीवन को सुंदर बना लेते हैं। वह लोग आत्मिक जीवन देने वाली वाणी अपनी जीभ से उचारते रहते हैं, जीव को उस वाणी के साथ एकरस कर लेते हैं। भक्त जन प्रभु के नाम के साथ जीभ को रसित कर लेते हैं, नाम में जुड़ के नाम के वास्ते उनकी प्यास बढ़ती है, गुरु के शब्द से वह प्रभु-नाम से कुर्बान होते हैं, नाम की खातिर और सब शारीरिक सुख कुर्बान करते हैं। हे प्रभु! जब भक्तजन तेरे मन को प्यारे लगते हैं, तो वह गुरु पारस से छू के स्वयं भी पारस बन जाते हैं और लोगों को पवित्र जीवन देने के लायक बन जाते हैं। जो लोग स्वैभाव दूर करते हैं उन्हें वह आत्मिक दर्जा मिल जाता है जहाँ आत्मिक मौत असर नहीं कर सकती। पर ऐसा कोई विरला ही गुरु के दिए ज्ञान की विचार करने वाला सख्श होता है। हे नानक! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे सदा-स्थिर प्रभु के दर पर शोभा पाते हैं, वह अपने सारे जीवन में सदा-स्थिर प्रभु के नाम का ही व्यापार करते हैं।४।
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भूख पिआसो आथि किउ दरि जाइसा जीउ ॥ सतिगुर पूछउ जाइ नामु धिआइसा जीउ ॥ सचु नामु धिआई साचु चवाई गुरमुखि साचु पछाणा ॥ दीना नाथु दइआलु निरंजनु अनदिनु नामु वखाणा ॥ करणी कार धुरहु फुरमाई आपि मुआ मनु मारी ॥ नानक नामु महा रसु मीठा त्रिसना नामि निवारी ॥५॥२॥
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भूख पिआसो = भूखा प्यासा।
आथि = माया।
धिआसा = ध्याय सां, मैं सिमरूँगा।
धिआई = मैं ध्याऊँगा।
चवाई = मैं उचारूँगा।
गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।
अनदिनु = हर रोज।
वखाणा = मैं उचारूँगा।
करणी कार = करने योग्य काम।
धुरहु = परमात्मा ने अपने हजूरी से।
आपि = वह बँदा खुद।
मुआ = माया के मोह से मर जाता है।
महा रसु = सबसे श्रेष्ठ स्वाद वाला।
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अर्थ: जब तक मैं माया के वास्ते भूखा प्यासा रहता हूँ, तब तक मैं किसी भी तरह प्रभु के दर पर पहुँच नहीं सकता। माया की तृष्णा दूर करने का इलाज मैं जा के अपने गुरु से पूछता हूँ और उसकी शिक्षा के अनुसार मैं परमात्मा का नाम स्मरण करता हूँ नाम ही तृष्णा दूर करता है। गुरु की शरण पड़ कर मैं सदा-स्थिर नाम स्मरण करता हूँ सदा-स्थिर प्रभु की महिमा उचारता हूँ, और सदा स्थिर प्रभु से सांझ पाता हूँ। मैं हर रोज उस प्रभु का नाम मुँह से बोलता हूँ जो दीनों का सहारा है जो दया का श्रोत है और जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। परमात्मा ने जिस मनुष्य को अपनी हजूरी से ही नाम-स्मरण का करणीय कार्य करने का हुक्म दे दिया, वह मनुष्य अपने मन को माया की ओर से मार के तृष्णा के प्रभाव से बच जाता है। हे नानक! उस मनुष्य को प्रभु का नाम ही मीठा व सभी रसों से श्रेष्ठ लगता है, उसने नाम-जपने की इनायत से माया की तृष्णा अपने अंदर से दूर कर ली होती है।५।२।


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