अमृत वेले का हुक्मनामा – 18 नवंबर 2024
जैतसरी महला ५ घरु २ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु ॥ ऊचा अगम अपार प्रभु कथनु न जाइ अकथु ॥ नानक प्रभ सरणागती राखन कउ समरथु ॥१॥ छंतु ॥ जिउ जानहु तिउ राखु हरि प्रभ तेरिआ ॥ केते गनउ असंख अवगण मेरिआ ॥ असंख अवगण खते फेरे नितप्रति सद भूलीऐ ॥ मोह मगन बिकराल माइआ तउ प्रसादी घूलीऐ ॥ लूक करत बिकार बिखड़े प्रभ नेर हू ते नेरिआ ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु काढि भवजल फेरिआ ॥१॥
राग जैतसरी, घर २ में गुरु अर्जनदेव जी की बानी ‘छंद’ ।अकाल पुरख एक है और सतगुरु की कृपा द्वारा प्राप्त होता है। सलोकु। हे नानक! (कह) हे प्रभु! में तेरी सरन आया हूँ, तुम (सरन आए की) रक्षा करने की ताकत रखते हो। हे सब से ऊचे! हे अपहुच! हे बयंत! तू सब का मालिक है, तेरा सरूप बयां नहीं किया जा सकता, बयां से परे है।१। छंत। हे हरी! हे प्रभु! मैं तेरा हूँ, जैसे जानो वेसे (माया के मोह से) मेरी रक्षा करो। मैं (अपने) कितने अवगुण गिनू? मेरे अंदर अनगिनत अवगुण हैं। हे प्रभु! मेरे अनगिनत ही अवगुण हैं, पापों के घेरे में फसा रहता हूँ, रोज ही उकाई खा जाते हैं। भयानक माया के मोह में मस्त रहते हैं, तेरी कृपा से ही बच पाते हैं। हम जीव दुखदाई विकार (अपने तरफ से) परदे में करते हैं, परन्तु, हे प्रभु! तुम हमारे पास से भी पास बसते हो। नानक बनती करता है हे प्रभु! हमारे ऊपर कृपार कर, हम जीवों को संसार-सागर के (माया के) घेर से निकल ले॥१॥