संधिआ वेले का हुक्मनामा – 7 नवंबर 2024

*सलोक ॥*
*रचंति जीअ रचना मात गरभ असथापनं ॥ सासि सासि सिमरंति नानक महा अगनि न बिनासनं ॥१॥ मुखु तलै पैर उपरे वसंदो कुहथड़ै थाइ ॥ नानक सो धणी किउ विसारिओ उधरहि जिस दै नाइ ॥२॥ पउड़ी ॥ रकतु बिंदु करि निमिआ अगनि उदर मझारि ॥ उरध मुखु कुचील बिकलु नरकि घोरि गुबारि ॥ हरि सिमरत तू ना जलहि मनि तनि उर धारि ॥ बिखम थानहु जिनि रखिआ तिसु तिलु न विसारि ॥ प्रभ बिसरत सुखु कदे नाहि जासहि जनमु हारि ॥२॥*
*☬ अर्थ ☬*
*जो परमात्मा जीवों की बनावट बनाता है और उनको माँ के पेट में जगह देता है, हे नानक जी! जीव उस को प्रत्येक साँस के साथ साथ याद करते रहते हैं और (माँ के पेट की) बड़ी (भयानक) आग उसका नाश नहीं कर सकती ॥१॥ (हे भाई!) जब तेरा मुख नीचे को था, पैर ऊपर को थे, बहुत मुश्किल जगह पर तूँ वसता था, हे नानक जी! (कहो-) तब जिस प्रभू के नाम की बरकत से तूँ बचा रहा, अब उस मालिक को तुमने क्यों भुला दिया ? ॥२॥ (हे जीव!) (माँ की) रत्त से (पिता के) वीरज से (माँ के) पेट की आग में तूँ पैदा हुआ। तेरा मुख नीचे था, गंदा और डरावना था, (मानों) एक अंधेरे घोर नर्क में पड़ा हुआ था। जिस प्रभू को सिमर कर तूँ नहीं था जलता – उस को (अब भी) मनों तनों हृदय में याद कर। जिस प्रभू ने तुझे मुश्किल जगह से बचाया, उस को पल भर भी ना भुला। प्रभू को भुलाया कभी सुख नही होता, (अगर भुलाएंगा तो) मनुष्या जन्म (की बाज़ी) हार कर जाएंगा ॥२॥*


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