अमृत वेले का हुक्मनामा – 5 नवंबर 2024
धनासरी महला १ घरु २ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुरु सागरु रतनी भरपूरे ॥ अम्रितु संत चुगहि नही दूरे ॥ हरि रसु चोग चुगहि प्रभ भावै ॥ सरवर महि हंसु प्रानपति पावै ॥१॥ किआ बगु बपुड़ा छपड़ी नाइ ॥ कीचड़ि डूबै मैलु न जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ रखि रखि चरन धरे वीचारी ॥ दुबिधा छोडि भए निरंकारी ॥ मुकति पदारथु हरि रस चाखे ॥ आवण जाण रहे गुरि राखे ॥२॥ सरवर हंसा छोडि न जाइ ॥ प्रेम भगति करि सहजि समाइ ॥ सरवर महि हंसु हंस महि सागरु ॥ अकथ कथा गुर बचनी आदरु ॥३॥ सुंन मंडल इकु जोगी बैसे ॥ नारि न पुरखु कहहु कोऊ कैसे ॥ त्रिभवण जोति रहे लिव लाई ॥ सुरि नर नाथ सचे सरणाई ॥४॥ आनंद मूलु अनाथ अधारी ॥ गुरमुखि भगति सहजि बीचारी ॥ भगति वछल भै काटणहारे ॥ हउमै मारि मिले पगु धारे ॥५॥ अनिक जतन करि कालु संताए ॥ मरणु लिखाइ मंडल महि आए ॥ जनमु पदारथु दुबिधा खोवै ॥ आपु न चीनसि भ्रमि भ्रमि रोवै ॥६॥ कहतउ पड़तउ सुणतउ एक ॥ धीरज धरमु धरणीधर टेक ॥ जतु सतु संजमु रिदै समाए ॥ चउथे पद कउ जे मनु पतीआए ॥७॥ साचे निरमल मैलु न लागै ॥ गुर कै सबदि भरम भउ भागै ॥ सूरति मूरति आदि अनूपु ॥ नानकु जाचै साचु सरूपु ॥८॥१॥
अर्थ: बिचारा बगुला छपड़ी में क्यों नहाता है? (कुछ नहीं मिलता, बल्कि छपड़ी में नहा के) कीचड़ में डूबता है, (उसकी ये) मैल दूर नहीं होती (जो मनुष्य गुरू समुन्द्र को छोड़ के देवी-देवताओं आदि अन्य के आसरे तलाशता है वह, मानो, छपड़ी में ही नहा रहा है। वहाँ से वह और भी ज्यादा माया-मोह की मैल चिपका लेता है)।1। रहाउ। गुरू (मानो) एक समुन्द्र (है जो प्रभू की सिफत सालाह से) नाको नाक भरा हुआ है। गुरमुख सिख (उस सागर में से) आत्मिक जीवन देने वाली खुराक (प्राप्त करते हैं जैसे हंस मोती) चुगते हैं, (और गुरू से) दूर नहीं रहते। प्रभू की मेहर के अनुसार संत-हंस हरी-नाम रस (की) चोग चुगते हैं। (गुरसिख) हंस (गुरू-) सरोवर में (टिका रहता है, और) जिंद के मालिक प्रभू को पा लेता है।1। गुरसिख बड़ा सचेत हो के पूरा विचारवान हो के (जीवन-यात्रा में) पैर रखता है। परमात्मा के बिना किसी और आसरे की तलाश छोड़ के परमात्मा का ही बन जाता है। परमात्मा के नाम का रस चख के गुरसिख वह पदार्थ हासिल कर लेता है जो माया के मोह से खलासी दिलवा देता है। जिसकी गुरू ने सहायता कर दी उसके जन्म-मरण के चक्कर समाप्त हो गए।2। (जैसे) हंस मानसरोवर को छोड़ के नहीं जाता (वैसे ही जो सिख गुरू का दर छोड़ के नहीं जाता वह) प्रेमा भक्ति की बरकति से अडोल आत्मिक अवस्था में लीन हो जाता है। जो गुरसिख-हंस गुरू-सरोवर में टिकता है, उसके अंदर गुरू-सरोवर अपना आप प्रगट करता है (उस सिख के अंदर गुरू बस जाता है) – यह कथा अकथ है (भाव, इस आत्मिक अवस्था का बयान नहीं किया जा सकता। सिर्फ ये कह सकते हैं कि) गुरू के बचनों पर चल के वह (लोक-परलोक में) आदर पाता है।3। जे कोई विरला प्रभू चरणों में जुड़ा हुआ सख्श शून्य अवस्था में टिकता है, उसके अंदर स्त्री-मर्द वाला भेद नहीं रह जाता (भाव, उसके काम चेष्टा अपना प्रभाव नहीं डालती)। बताओ, कोई ये संकल्प कर भी कैसे सकता है? क्योंकि वह तो सदा उस परमात्मा में सुरति जोड़े रखता है जिसकी ज्योति तीनों भवनों में व्यापक है और देवते मनुष्य नाथ आदि सभी जिस सदा-स्थिर की शरण लिए रखते हैं।4। (गुरमुख-हंस गुरू-सागर में टिक के उस प्राणपति-प्रभू को मिलता है) जो आत्मिक आनंद का श्रोत है जो निआसरों का आसरा है। गुरमुख उसकी भक्ति के द्वारा और उसके गुणों के विचार के माध्यम से अडोल आत्मिक अवस्था में टिके रहते हैं। वह प्रभू (अपने सेवकों की) भक्ति से प्रेम करता है, उनके सारे डर दूर करने के समर्थ है। गुरमुखि अहंकार को मार के और (साध-संगति में) टिक के उस आनंद-मूल प्रभू (के चरनों) में जुड़ते हैं।5। जो मनुष्य (बेचारे बगुले की तरह अहंकार की छपड़ी में ही नहाता है, और) अपने आत्मिक जीवन को नहीं पहचानता, वह (अहंकार में) भटक-भटक के दुखी होता है; परमात्मा के बिना किसी और आसरे की तलाश में वह अमूल्य मानस जनम गवा लेता है; अनेकों अन्य ही जतन करने के कारण (सहेड़ी हुई) आत्मिक मौत (का लेख ही अपने माथे पर) लिखा के इस जगत में आया (और यहाँ भी आत्मिक मौत ही गले पड़वाता रहा)।6। (पर) जो मनुष्य एक परमात्मा की सिफत सालाह ही (नित्य) उचारता है, पढ़ता है और सुनता है और धरती के आसरे प्रभू की टेक पकड़ता है वह गंभीर स्वभाव ग्रहण करता है वह (मनुष्य जीवन के) फर्ज को (पहचानता है)। अगर मनुष्य (गुरू की शरण में रह के) अपने मन को उस आत्मिक अवस्था में पहुँचा ले जहाँ माया के तीनों ही गुण जोर नहीं डाल सकते, तो (सहज ही) जत-सत और संजम उसके हृदय में लीन रहते हैं।7। सदा-स्थिर प्रभू में टिक के पवित्र हुए मनुष्य के मन को विकारों की मैल नहीं चिपकती। गुरू के शबद की बरकति से उसकी भटकना दूर हो जाती है उसका (दुनियावी) डर-सहम समाप्त हो जाता है। नानक (भी) उस सदा-स्थिर हस्ती वाले प्रभू (के दर से नाम की दाति) मांगता है जिस जैसा और कोई नहीं है जिसकी (सुंदर) सूरत और जिसका अस्तित्व आदि से ही चला आ रहा है।8।1।