अमृत ​​वेले का हुक्मनामा – 12 सतंबर 2024

सोरठि महला ५ घरु २ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पाठु पड़िओ अरु बेदु बीचारिओ निवलि भुअंगम साधे ॥ पंच जना सिउ संगु न छुटकिओ अधिक अह्मबुधि बाधे ॥१॥ पिआरे इन बिधि मिलणु न जाई मै कीए करम अनेका ॥ हारि परिओ सुआमी कै दुआरै दीजै बुधि बिबेका ॥ रहाउ ॥ मोनि भइओ करपाती रहिओ नगन फिरिओ बन माही ॥ तट तीरथ सभ धरती भ्रमिओ दुबिधा छुटकै नाही ॥२॥ मन कामना तीरथ जाइ बसिओ सिरि करवत धराए ॥ मन की मैलु न उतरै इह बिधि जे लख जतन कराए ॥३॥ कनिक कामिनी हैवर गैवर बहु बिधि दानु दातारा ॥ अंन बसत्र भूमि बहु अरपे नह मिलीऐ हरि दुआरा ॥४॥ पूजा अरचा बंदन डंडउत खटु करमा रतु रहता ॥ हउ हउ करत बंधन महि परिआ नह मिलीऐ इह जुगता ॥५॥ जोग सिध आसण चउरासीह ए भी करि करि रहिआ ॥ वडी आरजा फिरि फिरि जनमै हरि सिउ संगु न गहिआ ॥६॥ राज लीला राजन की रचना करिआ हुकमु अफारा ॥ सेज सोहनी चंदनु चोआ नरक घोर का दुआरा ॥७॥ हरि कीरति साधसंगति है सिरि करमन कै करमा ॥ कहु नानक तिसु भइओ परापति जिसु पुरब लिखे का लहना ॥८॥ तेरो सेवकु इह रंगि माता ॥ भइओ क्रिपालु दीन दुख भंजनु हरि हरि कीरतनि इहु मनु राता ॥ रहाउ दूजा ॥१॥३॥

राग सोरठि, घर २ में गुरु अर्जनदेव जी की आठ-बंद वाली बाणी अकाल पुरुख एक है वः सतगुरु की कृपा द्वारा मिलता है हे भाई! कोई मनुख वेद (आदिक धरम पुस्तक को) पड़ता है और विचारता है। कोई मनुख निवलीकरम करता है, कोई कुंडलनी नाडी रस्ते प्राण चडाता है। (परन्तु इन साधनों से कामादिक ) पांचो के साथ , साथ ख़तम नहीं हो सकता। (बलिक ) और अहंकार में (मनुख) बंध जाता है ।१। हे भाई! मेरे देखते हुए अनेकों ही लोग (निश्चित धार्मिक) कर्म करते हैं, परन्तु इन साधनों से परमात्मा के चरणों में जुड़ा नहीं जा सकता। हे भाई! मैं तो इन कर्मो का सहारा छोड़ कर मालिक परभू के दर पर आ गिरा हूँ (और विनती करता रहता हूँ हे प्रभु! मुझे भलाई और बुराई की) परख करने की अकल दो।रहाउ। हे भाई! कोई मनुख चुप साधे बैठा है, कोई कर-पाती बन बैठा है (बर्तन के स्थान पर अपने हाथ बरतता है), कोई जंगल में नगन घूमता है। कोई मनुख सारे तीर्थों का रटन कर रहा है, कोई सारी धरती का भ्रमण कर रहा है, (परन्तु इस तरह भी) मन की अस्थिर हालत ख़तम नहीं होती॥२॥ हे भाई! कोई मनुष्य अपनी मनोकामना के अनुसार तीर्थों पे जा बसा है, (मुक्ति का चाहवान अपने) सिर पर (शिव जी वाला) आरा रखवाता है (और, अपने आप को चिरवा लेता है)। पर अगर कोई मनुष्य (ऐसे) लाखों ही यतन करे, इस तरह भी मन की (विकारों की) मैल नहीं उतरती।3। हे भाई! कोई मनुष्य सोना, स्त्री, बढ़िया घोड़े, बढ़िया हाथी (और ऐसे ही) कई किसमों के दान करने वाला है। कोई मनुष्य अन्न दान करता है, कपड़े दान करता है, जमीन दान करता है। (इस तरह भी) परमात्मा के दर पर पहुँचा नहीं जा सकता।4। हे भाई! कोई मनुष्य देव-पूजा में, देवताओं को नमस्कार दंडवत करने में, खट् कर्म करने में मस्त रहता है। पर वह भी (इन मिथे हुए धार्मिक कर्मों को करने के कारण अपने आप को धार्मिक समझ के) अहंकार करता-करता (माया के मोह के) बँधनों में जकड़ा रहता है। इस ढंग से भी परमात्मा को नहीं मिला जा सकता।5। योग-मत में सिद्धों के प्रसिद्ध चौरासी आसन हैं। ये आसन कर करके भी मनुष्य थक जाता है। उम्र तो लंबी कर लेता है, पर इस तरह परमात्मा से मिलाप का संजोग नहीं बनता, बार बार जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है।6। हे भाई! कई ऐसे हैं जो राज हकूमत के रंग तमाशे भोगते हैं, राजाओं वाले ठाठ-बाठ बनाते हैं, लोगों पर हुकम चलाते हैं, कोई उनका हुकम मोड़ नहीं सकता। सुंदर स्त्री की सेज भोगते हैं, (अपने शरीर पर) चंदन व इत्र लगाते हैं। पर ये सब कुछ तो भयानक नर्क की ओर ले जाने वाले हैं।7। हे भाई! साध-संगति में बैठ के परमात्मा की सिफत सालाह करनी- ये कर्म और सारे कर्मों से श्रेष्ठ है। पर, हे नानक! कह– ये अवसर उस मनुष्य को ही मिलता है जिसके माथे पर पूर्बले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार लेख लिखा होता है।8। हे भाई! तेरा सेवक तेरी सिफत सालाह के रंग में मस्त रहता है। हे भाई! दीनों के दुख दूर करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पर दयावान होता है, उसका ये मन परमात्मा की सिफत सालाह के रंग में रंगा रहता है। रहाउ दूजा।1।3।


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