संधिआ वेले का हुक्मनामा – 17 अगस्त 2024

धनासरी महला ३ ॥ जो हरि सेवहि तिन बलि जाउ ॥ तिन हिरदै साचु सचा मुखि नाउ ॥ साचो साचु समालिहु दुखु जाइ ॥ साचै सबदि वसै मनि आइ ॥१॥ गुरबाणी सुणि मैलु गवाए ॥ सहजे हरि नामु मंनि वसाए ॥१॥ रहाउ ॥ कूड़ु* *कुसतु त्रिसना अगनि बुझाए ॥ अंतरि सांति सहजि सुखु पाए ॥ गुर कै भाणै चलै ता आपु जाइ ॥ साचु महलु पाए हरि गुण गाइ ॥२॥ न सबदु बूझै न जाणै बाणी ॥ मनमुखि अंधे दुखि विहाणी ॥ सतिगुरु भेटे ता सुखु पाए ॥ हउमै विचहु ठाकि रहाए ॥३॥ किस नो कहीऐ दाता इकु सोइ ॥ किरपा करे सबदि मिलावा होइ ॥ मिलि प्रीतम साचे गुण गावा ॥ नानक साचे साचा भावा ॥४॥५॥

अर्थ: (हे भाई! गुरबाणी का आसरा ले कर) जो मनुष्य​ परमात्मा का सिमरन करते हैं, मैं उन से कुर्बान जाता हूँ। उनके हृदय में सदा-थिर प्रभू वसा रहता है, उनके मुख में सदा-थिर हरी-नाम टिका रहता है। हे भाई! सदा-थिर प्रभू को ही (हृदय में) संभाल कर रखा करो (इस की बरकत से प्रत्येक) दुख दूर हो जाता है। सदा-थिर प्रभू की सिफ़त-सालाह वाले श़ब्द में जुड़ने से (हरी-नाम) मन में आ वसता है ॥१॥ हे भाई! गुरू की बाणी सुना कर, (यह बाणी मन में से विकारों की) मैल दूर कर देती है। (यह बाणी) आतमिक अडोलता में (टिका कर) परमात्मा का नाम मन में वसा देती है ॥१॥ रहाउ ॥ (हे भाई! गुरू की बाणी मन में से) झूठ फ़रेब खत्म कर देती है, तृष्णा की आग बुझा देती है। (गुरबाणी की बरकत से) मन में शांति पैदा हो जाती है, आतमिक अडोलता में टिक जाते हैं, आतमिक आनंद प्राप्त होता है। (जब मनुष्य गुरबाणी के अनुसार) गुरू की रजा में चलता है, तब (उस के अंदर से) आपा-भाव दूर हो जाता है, तब वह प्रभू की सिफ़त-सालाह के गीत गा गा कर सदा-थिर रहने वाला टिकाना प्राप्त कर लेता है (प्रभू के चरणों में लीन रहता है) ॥२॥ हे भाई! जो मनुष्य ना गुरू के श़ब्द को समझता है, ना गुरू की बाणी के साथ गहरी सांझ पाता है, माया के मोह में अंधे हो चुके, और, अपने मन के पीछे चलने वाले (उस मनुष्य की उम्र) दुख में ही गुज़रती है। जब उस को गुरू मिल जाता है, तब वह आतमिक आनंद हासिल करता है, गुरू उस के मन में से अंहकार खत्म कर देता है ॥३॥ परन्तु, हे भाई! (परमात्मा के बिना) ओर किसी के आगे अरज़ोई की नहीं जा सकती। केवल परमात्मा ही (गुरू के मिलाप की दात) देने वाला है। जब परमात्मा (यह) कृपा करता है, तब गुरू के श़ब्द में जुड़ने से (प्रभू से) मिलाप हो जाता है। (अगर प्रभू की मेहर हो, तो) मैं प्रीतम-गुरू को मिल कर सदा-थिर प्रभू के गीत गा सकता हूँ। हे नानक जी! (कहो-) सदा-थिर प्रभू का नाम जप जप कर सदा-थिर प्रभू को प्यारा​ लग सकता हूँ ॥४॥५॥


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