संधिआ वेले का हुक्मनामा – 14 अगस्त 2024
धनासरी महला १ ॥ जीउ तपतु है बारो बार ॥ तपि तपि खपै बहुतु बेकार ॥ जै तनि बाणी विसरि जाइ ॥ जिउ पका रोगी विललाइ ॥१॥ बहुता बोलणु झखणु होइ ॥ विणु बोले जाणै सभु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ जिनि कन कीते अखी नाकु ॥ जिनि जिहवा दिती बोले तातु ॥ जिनि मनु राखिआ अगनी पाइ ॥ वाजै पवणु आखै सभ जाइ ॥२॥ जेता मोहु परीति सुआद ॥ सभा कालख दागा दाग ॥ दाग दोस मुहि चलिआ लाइ ॥ दरगह बैसण नाही जाइ ॥३॥ करमि मिलै आखणु तेरा नाउ ॥ जितु लगि तरणा होरु नही थाउ ॥ जे को डूबै फिरि होवै सार ॥ नानक साचा सरब दातार ॥४॥३॥५॥
अर्थ :- (सिफत सलाह की बानी विसरने से) जींद बार बार दुखी होती है, दुखी हो हो कर (फिर) और और विकारों में परेशान होती है। जिस सरीर में (भाव, जिस मनुख को) परभू की सिफत- सलाह के बाणी भूल जाती है, वह सदा विलाप में रहता है जैसे कोई कोड़ी मनुख।१। (सुमिरन से खाली रहने के कारण हम जो दुःख खुद बुला लेते है) उनके बारे में गिला-शिकवा करना व्यर्थ है, क्योंकि परमात्मा हमारे गिला करने के बिना ही (हमारे सारे रोगों का) कारण जानता है।१।रहाउ। (दुखों से बचने के लिए उस परभू का सिमरन करना चाहिए) जिस ने कान दिए, आँखे दी, नाक दिया, जिस ने जिव्हा दी जो जल्दी जल्दी बोलती है, जिस ने हमारे सरीर पर कृपा कर के जीवन को (सरीर में) टिका दिया, (जिस की कला से सरीर में) श्वास चलता है और मनुख हर जगह (चल -फिर और बोल चाल कर सकता है।२। जितना भी माया का मोह है दुनिया की प्रीति है, रसों के स्वाद हैं, ये सारे मन में विकारों की कालिख ही पैदा करते हैं, विकारों के दाग़ ही लगाते जाते हैं। (सिमरन से सूने रह के विकारों में फस के) मनुष्य विकारों के दाग़ अपने माथे पर लगा के (यहाँ से) चल पड़ता है, और परमात्मा की हजूरी में इसे बैठने के लिए जगह नहीं मिलती।੩। (पर, हे प्रभू! जीव के भी क्या वश?) तेरा नाम सिमरन (का गुण) तेरी मेहर से ही मिल सकता है, तेरे नाम में लग के (मोह और विकारों के समुंद्र में से) पार लांघा जा सकता है, (इनसे बचने के लिए) और कोई जगह नहीं है। हे नानक! (निराश होने की आवश्यक्ता नहीं) अगर कोई मनुष्य (प्रभू को भुला के विकारों में) डूबता भी है (वह प्रभू इतना दयालु है कि) फिर भी उसकी संभाल होती है। वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू सब जीवों को दातें देने वाला है (किसी से भेद-भाव नहीं रखता)।੪।੩।੫।