संधिआ वेले का हुक्मनामा – 9 अगस्त 2024

धनासरी महला ३ ॥ नावै की कीमति मिति कही न जाइ ॥ से जन धंनु जिन इक नामि लिव लाइ ॥ गुरमति साची साचा वीचारु ॥ आपे बखसे दे वीचारु ॥१॥ हरि नामु अचरजु प्रभु आपि सुणाए ॥ कली काल विचि गुरमुखि पाए ॥१॥ रहाउ ॥ हम मूरख मूरख मन माहि ॥ हउमै विचि सभ कार कमाहि ॥ गुर परसादी हंउमै जाइ ॥ आपे बखसे लए मिलाइ ॥२॥ बिखिआ का धनु बहुतु अभिमानु ॥ अहंकारि डूबै न पावै मानु ॥ आपु छोडि सदा सुखु होई ॥ गुरमति सालाही सचु सोई ॥३॥ आपे साजे करता सोइ ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ जिसु सचि लाए सोई लागै ॥ नानक नामि सदा सुखु आगै ॥४॥८॥ {पन्ना 666}

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम हैरान करने वाली ताकत वाला है। (पर यह नाम) प्रभू स्वयं ही (किसी भाग्यशाली को) सुनाता है। इन झगड़ों-भरे जीवन समय में वही मनुष्य हरी-नाम प्राप्त करता है जो गुरू के सन्मुख रहता है।1। रहाउ।
हे भाई! ये नहीं कहा जा सकता कि परमात्मा का नाम किस मोल मिल सकता है और इस नाम की ताकत कितनी है। जिन मनुष्यों ने परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ी हुई है वे भाग्यशाली हैं। जो मनुष्य कभी गलती ना करने वाली गुरू की मति ग्रहण करता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के गुणों की विचार (अपने अंदर) बसाता है। पर ये विचार प्रभू उसे ही देता है जिस पर खुद मेहर करता है।1।
हे भाई! हम जीव (अपना) हरेक काम अहंकार के आसरे ही करते हैं, (सो जो हम अपने) मन में (ध्यान से विचारें तो इस अहंकार के कारण) हम केवल मूर्ख हैं। ये अहंकार (हमारे अंदर से) गुरू की कृपा से दूर हो सकता है। (गुरू भी उसी को) मिलाता है जिस पर प्रभू खुद ही मेहर करता है।2।
(हे भाई! ये दुनियावी) माया का धन (मनुष्य के मन में) बड़ा अहंकार (पैदा करता है)। और, जो मनुष्य अहंकार में डूबा रहता है वह (प्रभू की हजूरी में) आदर नहीं पाता। हे भाई! स्वैभाव त्याग के सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। हे भाई! मैं तो गुरू की मति ले के उस सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह करता रहता हूँ।3।
हे भाई! वह करतार स्वयं ही (सारी सृष्टि को) पैदा करता है, उसके बिना कोई और (ऐसी अवस्था वाला) नहीं है। वह करतार जिस मनुष्य को (अपने) सदा-स्थिर नाम में जोड़ता है, वही मनुष्य (नाम-सिमरन में) लगता है। हे नानक! जो मनुष्य नाम में लगता है उसको ही आत्मिक आनंद बना रहता है (इस लोक में भी, और) परलोक में भी।4।8।


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