अमृत ​​वेले का हुक्मनामा – 4 जून 2024

सलोकु मः ३ ॥ ब्रहमु बिंदै तिस दा ब्रहमतु रहै एक सबदि लिव लाइ ॥ नव निधी अठारह सिधी पिछै लगीआ फिरहि जो हरि हिरदै सदा वसाइ ॥ बिनु सतिगुर नाउ न पाईऐ बुझहु करि वीचारु ॥ नानक पूरै भागि सतिगुरु मिलै सुखु पाए जुग चारि ॥१॥ मः ३ ॥ किआ गभरू किआ बिरधि है मनमुख त्रिसना भुख न जाइ ॥ गुरमुखि सबदे रतिआ सीतलु होए आपु गवाइ ॥ अंदरु त्रिपति संतोखिआ फिरि भुख न लगै आइ ॥ नानक जि गुरमुखि करहि सो परवाणु है जो नामि रहे लिव लाइ ॥२॥ पउड़ी ॥ हउ बलिहारी तिंन कंउ जो गुरमुखि सिखा ॥ जो हरि नामु धिआइदे तिन दरसनु पिखा ॥ सुणि कीरतनु हरि गुण रवा हरि जसु मनि लिखा ॥ हरि नामु सलाही रंग सिउ सभि किलविख क्रिखा ॥ धनु धंनु सुहावा सो सरीरु थानु है जिथै मेरा गुरु धरे विखा ॥१९॥

अर्थ :- जो मनुख केवल गुर-शब्द में वृती जोड़ के ब्रह्म को पहचाने, उस का ब्रह्मण-पन बना रहता है; जो मनुख हरि को हृदय में वसाए, नौ निधीआँ और अठारह सिधीआँ उस के पीछे घुमती हैं । विचार कर के समझो, सतिगुरु के बिना नाम नहीं मिलता, हे नानक ! पूरे किस्मत के साथ जिस को सतिगुरु मिले वह चारों युगों में (भावार्थ, सदा) सुख पाता है ।1 । जवान हो चाहे बुढा-मनमुख की तृष्णा भूख दूर नहीं होती, सतिगुरु के सनमुख हुए मनुख शब्द में रंगे हों कर के और अहंकार गँवा के अंदर से संतोखी होते हैं । (उन का) हृदय तृप्ति के कारण संतोखी होता है , और फिर (उनको माया की) भूख नहीं लगती । हे नानक ! गुरमुख मनुख जो कुछ करते हैं, वह कबूल होता है , क्योंकि वह नाम में वृती जोड़ी रखते हैं ।2। जो सिक्ख सतिगुरु के सनमुख हैं, मैं उन से सदके हूँ । जो हरि-नाम सिमरते हैं (जी चाहता है ) मैं उन का दर्शन करू, (उनसे) कीर्तन सुन के हरि के गुण गाऊं और हरि-जस मन में उकेर लूं, प्रेम के साथ हरि-नाम की सिफ़त करू और (अपने) सारे पाप काट दूँ । वह शरीर-जगह धन्य है, सुंदर है जहाँ प्यारा सतिगुरु पैर रखता है (भावार्थ, आ बसता है) ।19 ।


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