संधिआ वेले का हुक्मनामा – 31 मई 2024
बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा ॥ काल ग्रसत सभ लोग सिआने उठि पंडित पै चले निरासा ॥१॥ मन रे सरिओ न एकै काजा ॥ भजिओ न रघुपति राजा ॥१॥ रहाउ ॥ बन खंड जाइ जोगु तपु कीनो कंद मूलु चुनि खाइआ ॥ नादी बेदी सबदी मोनी जम के पटै लिखाइआ ॥२॥ भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तनु दीना ॥ राग रागनी डि्मभ होइ बैठा उनि हरि पहि किआ लीना ॥३॥ परिओ कालु सभै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम गिआनी ॥ कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी ॥४॥३॥*
*☬ हिंदी में अर्थ :- ☬*
*जिन समझदार मनुष्यों ने वेद पुरान आदि के सारे मत सुन के कर्म-काँड की आशा रखी, (यह आशा रखी कि कर्म-काँड के साथ जीवन सुधरेगा), वह सारे (आतमिक) मौत में ही ग्रसे रहे। पंडित लोग भी आशा पूरी होने के बिना ही उठ के चले गए (जगत* *त्याग गए) ॥१॥ हे मन! तुझ से यह एक काम भी (जो करने-योग्य था) नहीं हो सका, तुम ने प्रकाश-रूप परमात्मा का भजन नहीं किया ॥१॥ रहाउ ॥ कई लोगों ने जंगलों में जा के योग साधे, तप किए, गाजर-मूली आदि खा कर गुजारा किया; योगी, कर्म-काँडी, ‘अलख’ कहने वाले योगी, मोनधारी-यह सारे जम के लेखे में ही लिखे गए (भावार्थ, इन के साधन मौत के डर से बचा नहीं सकते) ॥२॥ जिस मनुष्य ने शरीर पर तो (धार्मिक चिन्ह) चक्र आदि लगा लिए हैं, पर प्रेम-भगती उस के हृदय में पैदा नहीं हुई, जो राग रागनियाँ तो गाता है पर निरा पाखंड-मूर्ती ही बन बैठा है, ऐसे मनुष्य को परमात्मा से कुछ नहीं मिलता ॥३॥ सारे जगत पर काल का सहम पड़ा हुआ है, भ्रमी ज्ञानी भी उसी ही लेखे में लिखे गए हैं (वह भी मौत के सहम में ही हैं)। कबीर जी कहते हैं – जिन मनुष्यों ने प्रेम-भगती करनी समझ लई है वह (मौत के सहम से) आज़ाद हो गए हैं ॥४॥३॥*