सोरठि महला ४ ॥ आपे स्रिसटि उपाइदा पिआरा करि सूरजु चंदु चानाणु ॥ आपि निताणिआ ताणु है पिआरा आपि निमाणिआ माणु ॥ आपि दइआ करि रखदा पिआरा आपे सुघड़ु सुजाणु ॥१॥ मेरे मन जपि राम नामु नीसाणु ॥ सतसंगति मिलि धिआइ तू हरि हरि बहुड़ि न आवण जाणु ॥ रहाउ ॥ आपे ही गुण वरतदा पिआरा आपे ही परवाणु ॥ आपे बखस कराइदा पिआरा आपे सचु नीसाणु ॥ आपे हुकमि वरतदा पिआरा आपे ही फुरमाणु ॥२॥ आपे भगति भंडार है पिआरा आपे देवै दाणु ॥ आपे सेव कराइदा पिआरा आपि दिवावै माणु ॥ आपे ताड़ी लाइदा पिआरा आपे गुणी निधानु ॥३॥ आपे वडा आपि है पिआरा आपे ही परधाणु ॥ आपे कीमति पाइदा पिआरा आपे तुलु परवाणु ॥ आपे अतुलु तुलाइदा पिआरा जन नानक सद कुरबाणु ॥४॥५॥
अर्थ: हे भाई! वह प्यारा प्रभू आप ही सृष्टि की रचना करता है, और (संसार को) रोशन करने के लिए सूरज व् चंदर बनाता है। प्रभू आप ही बेसहारों का सहारा है, जिस को कोई आदर मान नहीं देता उनको वह आदर मान देने वाला है। वह प्यारा प्रभू सुंदर आत्मिक बनावट वाला है, सब के दिलों की जानने वाला है, वह कृपा कर के सब की रक्षा करता है ॥१॥ हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सुमिरन किया कर। (नाम ही जीवन-सफ़र के लिए) राहदारी है। हे भाई! साध संगत में मिल कर तूँ परमात्मा का ध्यान धरा कर, (ध्यान की बरकत से) फिर जन्म मरण का चक्र नहीं रहेगा ॥ रहाउ ॥ हे भाई! वह प्यारा प्रभू आप ही (जीवों को अपनें) गुणों की सौगात देता है, आप ही जीवों को अपनी हजूरी में कबूल करता है। प्रभू आप ही सब ऊपर कृपा करता है, वह आप ही (जीवों के लिए) सदा कायम रहने वाली प्रकाश की मीनार है। वह प्यारा प्रभू आप ही (जीवों को) हुकम में चलाता है, आप ही हर जगह हुकम करता है ॥२॥ हे भाई! वह प्यारा प्रभू (अपनी) भगती के खजानों वाला है, आप ही (जीवों को अपनी भगती की) दात देता है। प्रभू आप ही (जीवों से) सेवा-भगती करवाता है, और आप ही (सेवा-भगती करने वालों को जगत से) इज्जत दिलवाता है। वह प्रभू आप ही गुणों का खजाना है, और आप ही (अपने गुणों में) समाधी लाता है ॥३॥ हे भाई! वह प्रभू प्यारा आप ही सब से बड़ा है और सब का प्रधान है। वह आप ही (अपना) तोल और पैमाना इस्तेमाल कर के (अपने पैदा किए हुए जीवों के जीवन का) मुल्य पाता है। वह प्रभू आप अतुल्य है (उस की बुजुर्गी का माप नहीं हो सकता) वह (जीवों के जीवन सदा) तोलता है। हे दास नानक जी! (कहो-) मैं सदा उस से सदके जाता हूँ ॥४॥५॥
ਅੰਗ : 606
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੪ ॥ ਆਪੇ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਉਪਾਇਦਾ ਪਿਆਰਾ ਕਰਿ ਸੂਰਜੁ ਚੰਦੁ ਚਾਨਾਣੁ ॥ ਆਪਿ ਨਿਤਾਣਿਆ ਤਾਣੁ ਹੈ ਪਿਆਰਾ ਆਪਿ ਨਿਮਾਣਿਆ ਮਾਣੁ ॥ ਆਪਿ ਦਇਆ ਕਰਿ ਰਖਦਾ ਪਿਆਰਾ ਆਪੇ ਸੁਘੜੁ ਸੁਜਾਣੁ ॥੧॥ ਮੇਰੇ ਮਨ ਜਪਿ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਨੀਸਾਣੁ ॥ ਸਤਸੰਗਤਿ ਮਿਲਿ ਧਿਆਇ ਤੂ ਹਰਿ ਹਰਿ ਬਹੁੜਿ ਨ ਆਵਣ ਜਾਣੁ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਆਪੇ ਹੀ ਗੁਣ ਵਰਤਦਾ ਪਿਆਰਾ ਆਪੇ ਹੀ ਪਰਵਾਣੁ ॥ ਆਪੇ ਬਖਸ ਕਰਾਇਦਾ ਪਿਆਰਾ ਆਪੇ ਸਚੁ ਨੀਸਾਣੁ ॥ ਆਪੇ ਹੁਕਮਿ ਵਰਤਦਾ ਪਿਆਰਾ ਆਪੇ ਹੀ ਫੁਰਮਾਣੁ ॥੨॥ ਆਪੇ ਭਗਤਿ ਭੰਡਾਰ ਹੈ ਪਿਆਰਾ ਆਪੇ ਦੇਵੈ ਦਾਣੁ ॥ ਆਪੇ ਸੇਵ ਕਰਾਇਦਾ ਪਿਆਰਾ ਆਪਿ ਦਿਵਾਵੈ ਮਾਣੁ ॥ ਆਪੇ ਤਾੜੀ ਲਾਇਦਾ ਪਿਆਰਾ ਆਪੇ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ॥੩॥ ਆਪੇ ਵਡਾ ਆਪਿ ਹੈ ਪਿਆਰਾ ਆਪੇ ਹੀ ਪਰਧਾਣੁ ॥ ਆਪੇ ਕੀਮਤਿ ਪਾਇਦਾ ਪਿਆਰਾ ਆਪੇ ਤੁਲੁ ਪਰਵਾਣੁ ॥ ਆਪੇ ਅਤੁਲੁ ਤੁਲਾਇਦਾ ਪਿਆਰਾ ਜਨ ਨਾਨਕ ਸਦ ਕੁਰਬਾਣੁ ॥੪॥੫॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ! ਉਹ ਪਿਆਰਾ ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਪੈਦਾ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਤੇ (ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਨੂੰ) ਸੂਰਜ ਚੰਦ ਚਾਨਣ ਕਰਨ ਲਈ ਬਣਾਂਦਾ ਹੈ। ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਨਿਆਸਰਿਆਂ ਦਾ ਆਸਰਾ ਹੈ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕੋਈ ਆਦਰ-ਮਾਣ ਨਹੀਂ ਦੇਂਦਾ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਆਦਰ-ਮਾਣ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਹੈ। ਉਹ ਪਿਆਰਾ ਪ੍ਰਭੂ ਸੋਹਣੀ ਆਤਮਕ ਘਾੜਤ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਸਭ ਦੇ ਦਿਲ ਦੀ ਜਾਣਨ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਉਹ ਮੇਹਰ ਕਰ ਕੇ ਆਪ ਸਭ ਦੀ ਰਖਿਆ ਕਰਦਾ ਹੈ ॥੧॥ ਹੇ ਮੇਰੇ ਮਨ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰਿਆ ਕਰ। (ਨਾਮ ਹੀ ਜੀਵਨ-ਸਫ਼ਰ ਵਾਸਤੇ) ਰਾਹਦਾਰੀ ਹੈ। ਹੇ ਭਾਈ! ਸਾਧ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ ਮਿਲ ਕੇ ਤੂੰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਧਿਆਨ ਧਰਿਆ ਕਰ, (ਧਿਆਨ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ) ਮੁੜ ਜਨਮ ਮਰਨ ਦਾ ਗੇੜ ਨਹੀਂ ਰਹੇਗਾ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਉਹ ਪਿਆਰਾ ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ) ਗੁਣਾਂ ਦੀ ਦਾਤਿ ਦੇਂਦਾ ਹੈ, ਆਪ ਹੀ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਹਜ਼ੂਰੀ ਵਿਚ ਕਬੂਲ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਸਭ ਉਤੇ ਬਖ਼ਸ਼ਸ਼ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਵਾਸਤੇ) ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਚਾਨਣ-ਮੁਨਾਰਾ ਹੈ। ਉਹ ਪਿਆਰਾ ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ) ਹੁਕਮ ਵਿਚ ਤੋਰਦਾ ਹੈ, ਆਪ ਹੀ ਹਰ ਥਾਂ ਹੁਕਮ ਚਲਾਂਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਉਹ ਪਿਆਰਾ ਪ੍ਰਭੂ (ਆਪਣੀ) ਭਗਤੀ ਦੇ ਖ਼ਜ਼ਾਨਿਆਂ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਭਗਤੀ ਦੀ) ਦਾਤਿ ਦੇਂਦਾ ਹੈ। ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਪਾਸੋਂ) ਸੇਵਾ-ਭਗਤੀ ਕਰਾਂਦਾ ਹੈ, ਤੇ ਆਪ ਹੀ (ਸੇਵਾ-ਭਗਤੀ ਕਰਨ ਵਾਲਿਆਂ ਨੂੰ ਜਗਤ ਪਾਸੋਂ) ਇੱਜ਼ਤ ਦਿਵਾਂਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਗੁਣਾਂ ਦਾ ਖ਼ਜ਼ਾਨਾ ਹੈ, ਤੇ ਆਪ ਹੀ (ਆਪਣੇ ਗੁਣਾਂ ਵਿਚ) ਸਮਾਧੀ ਲਾਂਦਾ ਹੈ ॥੩॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਉਹ ਪ੍ਰਭੂ ਪਿਆਰਾ ਆਪ ਹੀ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਹੈ ਤੇ ਮੰਨਿਆ-ਪ੍ਰਮੰਨਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਉਹ ਆਪ ਹੀ (ਆਪਣਾ) ਤੋਲ ਤੇ ਪੈਮਾਨਾ ਵਰਤ ਕੇ (ਆਪਣੇ ਪੈਦਾ ਕੀਤੇ ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਜੀਵਨ ਦਾ) ਮੁੱਲ ਪਾਂਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਅਤੁੱਲ ਹੈ (ਉਸ ਦੀ ਬਜ਼ੁਰਗੀ ਦਾ ਮਾਪ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ) ਉਹ (ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਜੀਵਨ ਸਦਾ) ਤੋਲਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਦਾਸ ਨਾਨਕ ਜੀ! (ਆਖੋ-) ਮੈਂ ਸਦਾ ਉਸ ਤੋਂ ਸਦਕੇ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ ॥੪॥੫॥
।।ਤੇਰੇ ਲਾਲੇ ਕਿਆ ਚਤੁਰਾਈ।।
।।ਸਾਹਿਬ ਕਾ ਹੁਕਮਿ ਨਾ ਕਰਣਾ ਜਾਈ।।
धनासरी महला १ ॥ जीवा तेरै नाइ मनि आनंदु है जीउ ॥ साचो साचा नाउ गुण गोविंदु है जीउ ॥ गुर गिआनु अपारा सिरजणहारा जिनि सिरजी तिनि गोई ॥ परवाणा आइआ हुकमि पठाइआ फेरि न सकै कोई ॥ आपे करि वेखै सिरि सिरि लेखै आपे सुरति बुझाई ॥ नानक साहिबु अगम अगोचरु जीवा सची नाई ॥१॥ तुम सरि अवरु न कोइ आइआ जाइसी जीउ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु भरमु चुकाइसी जीउ ॥ गुरु भरमु चुकाए अकथु कहाए सच महि साचु समाणा ॥ आपि उपाए आपि समाए हुकमी हुकमु पछाणा ॥ सची वडिआई गुर ते पाई तू मनि अंति सखाई ॥ नानक साहिबु अवरु न दूजा नामि तेरै वडिआई ॥२॥ तू सचा सिरजणहारु अलख सिरंदिआ जीउ ॥ एकु साहिबु दुइ राह वाद वधंदिआ जीउ ॥ दुइ राह चलाए हुकमि सबाए जनमि मुआ संसारा ॥ नाम बिना नाही को बेली बिखु लादी सिरि भारा ॥ हुकमी आइआ हुकमु न बूझै हुकमि सवारणहारा ॥ नानक साहिबु सबदि सिञापै साचा सिरजणहारा ॥३॥ भगत सोहहि दरवारि सबदि सुहाइआ जीउ ॥ बोलहि अम्रित बाणि रसन रसाइआ जीउ ॥ रसन रसाए नामि तिसाए गुर कै सबदि विकाणे ॥ पारसि परसिऐ पारसु होए जा तेरै मनि भाणे ॥ अमरा पदु पाइआ आपु गवाइआ विरला गिआन वीचारी ॥ नानक भगत सोहनि दरि साचै साचे के वापारी ॥४॥ भूख पिआसो आथि किउ दरि जाइसा जीउ ॥ सतिगुर पूछउ जाइ नामु धिआइसा जीउ ॥ सचु नामु धिआई साचु चवाई गुरमुखि साचु पछाणा ॥ दीना नाथु दइआलु निरंजनु अनदिनु नामु वखाणा ॥ करणी कार धुरहु फुरमाई आपि मुआ मनु मारी ॥ नानक नामु महा रसु मीठा त्रिसना नामि निवारी ॥५॥२॥
अर्थ: हे प्रभू जी! तेरे नाम में (जुड़ कर) मेरे अंदर आतमिक जीवन पैदा होता है, मेरे मन में ख़ुश़ी पैदा होती है। हे भाई! परमात्मा का नाम सदा-थिर रहने वाला है, प्रभू गुणों (का ख़ज़ाना) है और धरती के जीवों के दिल की जानने वाला है। गुरू का बख़्श़ा ज्ञान बताता है कि सिरजनहार प्रभू बेअंत है, जिस ने यह सृष्टि पैदा की है, वही इस को नाश करता है। जब उस के हुक्म में भेजा हुआ (मौत का) निमंत्रण आता है तो कोई जीव (उस निमंत्रण को) मोड़ नहीं सकता। परमात्मा आप ही (जीवों को) पैदा कर के आप ही संभाल करता है, आप ही प्रत्येक जीव के सिर पर (उस के किए कार्य अनुसार) लेख लिखता है, आप ही (जीव को सही जीवन-मार्ग की) सूझ बख़्श़ता है। मालिक-प्रभू अपहुँच है, जीवों के ज्ञान-इंद्रियों की उस तक पहुँच नहीं हो सकती। हे नानक जी! (उस के द्वार पर अरदास करो, और कहो – हे प्रभू!) तेरी सदा कायम रहने वाली सिफ़त-सलाह कर के मेरे अंदर आतमिक जीवन पैदा होता है (मुझे अपनी सिफ़त-सलाह बख़्श़) ॥१॥ हे प्रभू जी! तेरे बराबर का अन्य कोई नहीं है, (अन्य जो भी जगत में) आया है, (वह यहाँ से आखिर) चला जाएगा (तूँ ही सदा कायम रहने वाला हैं)। जिस मनुष्य की भटकना (गुरू) दूर करता है, प्रभू के हुक्म अनुसार उस के जन्म मरण के चक्र खत्म हो जाते हैं। गुरू जिस की भटकना दूर करता है, उस से उस परमात्मा की सिफ़त-सलाह करवाता है जिस के गुण बताए नहीं जा सकते। वह मनुष्य सदा-थिर प्रभू (की याद) में रहता है, सदा-थिर प्रभू (उस के हृदय में) प्रगट हो जाता है। वह मनुष्य रज़ा के मालिक-प्रभू का हुक्म पहचान लेता है (और समझ लेता है कि) प्रभू आप ही पैदा करता है और आप ही (अपने में) लीन कर लेता है। हे प्रभू! जिस मनुष्य ने तेरी सिफ़त- सलाह (की दात) गुरू से प्राप्त कर लई है, तूँ उस के मन में आ वसता हैं और अंत समय भी उस का मित्र बनता हैं। हे नानक जी! मालिक-प्रभू सदा कायम रहने वाला है, उस जैसा अन्य कोई नहीं। (उस के द्वार पर अरदास करो और कहो-) हे प्रभू! तेरे नाम से जुड़ने से (लोग परलोग में) आदर मिलता है ॥२॥ हे अदृष्ट रचनहार! तूँ सदा-थिर रहने वाला हैं और सब जीवों को पैदा करने वाला हैं। एक सिरजणहार ही (सारे जगत का) मालिक है, उस ने (जन्म और मरण) के दो रास्ते चलाएं हैं। (उसी की रज़ा अनुसार जगत में) झगड़ों की वृद्धि होती है। दोनों रास्ते प्रभू ने ही चलाएं हैं, सभी जीव उसी के हुक्म में हैं, (उसी के हुक्म अनुसार) जगत जमता और मरता रहता है। (जीव नाम को भुला कर माया के मोह का) ज़हर-रूप बोझ अपने सिर पर इक्कठा करी जाता है, (और यह नहीं समझता कि) परमात्मा के नाम के बिना अन्य कोई भी साथी-मित्र नहीं बन सकता। जीव (परमात्मा के) हुक्म अनुसार (जगत में) आता है, (पर माया के मोह में फंस कर उस) हुक्म को समझता नहीं। प्रभू आप ही जीव को अपने हुक्म अनुसार (सही रास्ते पा कर) संवारने के समर्थ है। हे नानक जी! गुरू के श़ब्द में जुड़ने से यह पहचान आती है कि जगत का मालिक सदा-थिर रहने वाला है और सब का पैदा करने वाला है ॥३॥ हे भाई! परमात्मा की भगती करने वाले मनुष्य परमात्मा की हज़ूरी में शोभा प्राप्त करते हैं, क्योंकि गुरू के श़ब्द की बरकत से वह अपने जीवन को सुंदर बना लेते हैं। वह मनुष्य आतमिक जीवन देने वाली बाणी अपनी जीभ से उचारते रहते हैं, जीव को उस बाणी से एक-रस कर लेते हैं। भगत-जन प्रभू के नाम से जीभ को रसा लेते हैं, नाम में जुड़ कर (नाम के लिए उनकी) प्यास बढ़ती है, गुरू के श़ब्द द्वारा वह प्रभू-नाम से सदके होते हैं (नाम की खातिर अन्य सभी शारीरिक सुख कुर्बान करते हैं। हे प्रभू! जब (भगत जन) तेरे मन को प्यारे लगते हैं, तब वह गुरू-पारस से स्पर्श कर के आप भी पारस हो जाते हैं (अन्यों को पवित्र जीवन देने योग्य हो जाते हैं)। जो मनुष्य आपा-भाव दूर करते हैं उनको वह आतमिक दर्जा मिल जाता है जहाँ आतमिक मौत असर नहीं कर सकती। परन्तु इस तरह कोई विरला ही गुरू के दिए ज्ञान की विचार करने वाला मनुष्य होता है। हे नानक जी! परमात्मा की भगती करने वाले मनुष्य सदा-थिर प्रभू के द्वार पर शोभा प्राप्त करते हैं, वह (अपने सारे जीवन में) सदा-थिर प्रभू के नाम का ही व्यपार करते हैं ॥४॥ जब तक मैं माया के लिए भुखा प्यासा रहता हूँ, तब तक मैं किसी भी तरह प्रभू के द्वार पर पहुँच नहीं सकता। (माया की तृष्णा दूर करने का इलाज) मैं जा कर अपने गुरू से पुछता हूँ (और उन की शिक्षा के अनुसार) मैं परमात्मा का नाम सिमरता हूँ (नाम ही तृष्णा दूर करता है)। गुरू की श़रण पड़ कर मैं सदा-थिर नाम सिमरता हूँ, सदा-थिर प्रभू (की सिफ़त-सलाह) उचारता हूँ, और सदा-थिर प्रभू के साथ सांझ पाता हूँ। मैं हर रोज़ उस प्रभू का नाम मुख से लेता हूँ जो दीनों का सहारा है जो दया का स्रोत है और जिस पर माया का असर नहीं पड़ सकता। परमात्मा ने जिस मनुष्य को अपनी हज़ूरी से ही नाम सिमरन की करने-योग्य कार्य करने का हुक्म दे दिया, वह मनुष्य अपने मन को (माया की तरफ़ से) मार कर तृष्णा के असर से बच जाता है। हे नानक जी! उस मनुष्य को प्रभू का नाम ही मीठा और अन्य सभी रसों से श्रेष्ठ लगता है, उस ने नाम सिमरन की बरकत से माया की तृष्णा (अपने अंदर से) दूर कर ली होती है ॥५॥२॥
ਅੰਗ : 688
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ ਜੀਵਾ ਤੇਰੈ ਨਾਇ ਮਨਿ ਆਨੰਦੁ ਹੈ ਜੀਉ ॥ ਸਾਚੋ ਸਾਚਾ ਨਾਉ ਗੁਣ ਗੋਵਿੰਦੁ ਹੈ ਜੀਉ ॥ ਗੁਰ ਗਿਆਨੁ ਅਪਾਰਾ ਸਿਰਜਣਹਾਰਾ ਜਿਨਿ ਸਿਰਜੀ ਤਿਨਿ ਗੋਈ ॥ ਪਰਵਾਣਾ ਆਇਆ ਹੁਕਮਿ ਪਠਾਇਆ ਫੇਰਿ ਨ ਸਕੈ ਕੋਈ ॥ ਆਪੇ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸਿਰਿ ਸਿਰਿ ਲੇਖੈ ਆਪੇ ਸੁਰਤਿ ਬੁਝਾਈ ॥ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬੁ ਅਗਮ ਅਗੋਚਰੁ ਜੀਵਾ ਸਚੀ ਨਾਈ ॥੧॥ ਤੁਮ ਸਰਿ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ਆਇਆ ਜਾਇਸੀ ਜੀਉ ॥ ਹੁਕਮੀ ਹੋਇ ਨਿਬੇੜੁ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਇਸੀ ਜੀਉ ॥ ਗੁਰੁ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਏ ਅਕਥੁ ਕਹਾਏ ਸਚ ਮਹਿ ਸਾਚੁ ਸਮਾਣਾ ॥ ਆਪਿ ਉਪਾਏ ਆਪਿ ਸਮਾਏ ਹੁਕਮੀ ਹੁਕਮੁ ਪਛਾਣਾ ॥ ਸਚੀ ਵਡਿਆਈ ਗੁਰ ਤੇ ਪਾਈ ਤੂ ਮਨਿ ਅੰਤਿ ਸਖਾਈ ॥ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬੁ ਅਵਰੁ ਨ ਦੂਜਾ ਨਾਮਿ ਤੇਰੈ ਵਡਿਆਈ ॥੨॥ ਤੂ ਸਚਾ ਸਿਰਜਣਹਾਰੁ ਅਲਖ ਸਿਰੰਦਿਆ ਜੀਉ ॥ ਏਕੁ ਸਾਹਿਬੁ ਦੁਇ ਰਾਹ ਵਾਦ ਵਧੰਦਿਆ ਜੀਉ ॥ ਦੁਇ ਰਾਹ ਚਲਾਏ ਹੁਕਮਿ ਸਬਾਏ ਜਨਮਿ ਮੁਆ ਸੰਸਾਰਾ ॥ ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਨਾਹੀ ਕੋ ਬੇਲੀ ਬਿਖੁ ਲਾਦੀ ਸਿਰਿ ਭਾਰਾ ॥ ਹੁਕਮੀ ਆਇਆ ਹੁਕਮੁ ਨ ਬੂਝੈ ਹੁਕਮਿ ਸਵਾਰਣਹਾਰਾ ॥ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬੁ ਸਬਦਿ ਸਿਞਾਪੈ ਸਾਚਾ ਸਿਰਜਣਹਾਰਾ ॥੩॥ ਭਗਤ ਸੋਹਹਿ ਦਰਵਾਰਿ ਸਬਦਿ ਸੁਹਾਇਆ ਜੀਉ ॥ ਬੋਲਹਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਾਣਿ ਰਸਨ ਰਸਾਇਆ ਜੀਉ ॥ ਰਸਨ ਰਸਾਏ ਨਾਮਿ ਤਿਸਾਏ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਵਿਕਾਣੇ ॥ ਪਾਰਸਿ ਪਰਸਿਐ ਪਾਰਸੁ ਹੋਏ ਜਾ ਤੇਰੈ ਮਨਿ ਭਾਣੇ ॥ ਅਮਰਾ ਪਦੁ ਪਾਇਆ ਆਪੁ ਗਵਾਇਆ ਵਿਰਲਾ ਗਿਆਨ ਵੀਚਾਰੀ ॥ ਨਾਨਕ ਭਗਤ ਸੋਹਨਿ ਦਰਿ ਸਾਚੈ ਸਾਚੇ ਕੇ ਵਾਪਾਰੀ ॥੪॥ ਭੂਖ ਪਿਆਸੋ ਆਥਿ ਕਿਉ ਦਰਿ ਜਾਇਸਾ ਜੀਉ ॥ ਸਤਿਗੁਰ ਪੂਛਉ ਜਾਇ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਸਾ ਜੀਉ ॥ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈ ਸਾਚੁ ਚਵਾਈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚੁ ਪਛਾਣਾ ॥ ਦੀਨਾ ਨਾਥੁ ਦਇਆਲੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਵਖਾਣਾ ॥ ਕਰਣੀ ਕਾਰ ਧੁਰਹੁ ਫੁਰਮਾਈ ਆਪਿ ਮੁਆ ਮਨੁ ਮਾਰੀ ॥ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਮਹਾ ਰਸੁ ਮੀਠਾ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਨਾਮਿ ਨਿਵਾਰੀ ॥੫॥੨॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ ਜੀ! ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਵਿਚ (ਜੁੜ ਕੇ) ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਮੇਰੇ ਮਨ ਵਿਚ ਖ਼ੁਸ਼ੀ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਪ੍ਰਭੂ ਗੁਣਾਂ (ਦਾ ਖ਼ਜ਼ਾਨਾ) ਹੈ ਤੇ ਧਰਤੀ ਦੇ ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਦਿਲ ਦੀ ਜਾਣਨ ਵਾਲਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਦਾ ਬਖ਼ਸ਼ਿਆ ਗਿਆਨ ਦੱਸਦਾ ਹੈ ਕਿ ਸਿਰਜਣਹਾਰ ਪ੍ਰਭੂ ਬੇਅੰਤ ਹੈ, ਜਿਸ ਨੇ ਇਹ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਪੈਦਾ ਕੀਤੀ ਹੈ, ਉਹੀ ਇਸ ਨੂੰ ਨਾਸ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਉਸ ਦੇ ਹੁਕਮ ਵਿਚ ਭੇਜਿਆ ਹੋਇਆ (ਮੌਤ ਦਾ) ਸੱਦਾ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਕੋਈ ਜੀਵ (ਉਸ ਸੱਦੇ ਨੂੰ) ਮੋੜ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ) ਪੈਦਾ ਕਰ ਕੇ ਆਪ ਹੀ ਸੰਭਾਲ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਆਪ ਹੀ ਹਰੇਕ ਜੀਵ ਦੇ ਸਿਰ ਉਤੇ (ਉਸ ਦੇ ਕੀਤੇ ਕਰਮਾਂ ਅਨੁਸਾਰ) ਲੇਖ ਲਿਖਦਾ ਹੈ, ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵ ਨੂੰ ਸਹੀ ਜੀਵਨ-ਰਾਹ ਦੀ) ਸੂਝ ਬਖ਼ਸ਼ਦਾ ਹੈ। ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਅਪਹੁੰਚ ਹੈ, ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਗਿਆਨ-ਇੰਦ੍ਰਿਆਂ ਦੀ ਉਸ ਤਕ ਪਹੁੰਚ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੀ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! (ਉਸ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਅਰਦਾਸ ਕਰੋ, ਤੇ ਆਖੋ-ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ!) ਤੇਰੀ ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰ ਕੇ ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ (ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਬਖ਼ਸ਼) ॥੧॥ ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ ਜੀ! ਤੇਰੇ ਬਰਾਬਰ ਦਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਹੈ, (ਹੋਰ ਜੇਹੜਾ ਭੀ ਜਗਤ ਵਿਚ) ਆਇਆ ਹੈ, (ਉਹ ਇਥੋਂ ਆਖ਼ਰ) ਚਲਾ ਜਾਇਗਾ (ਤੂੰ ਹੀ ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈਂ)। ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਭਟਕਣਾ (ਗੁਰੂ) ਦੂਰ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ ਉਸ ਦੇ ਜਨਮ ਮਰਨ ਦੇ ਗੇੜ ਦਾ ਖ਼ਾਤਮਾ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਜਿਸ ਦੀ ਭਟਕਣਾ ਦੂਰ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਪਾਸੋਂ ਉਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਾਂਦਾ ਹੈ ਜਿਸ ਦੇ ਗੁਣ ਬਿਆਨ ਤੋਂ ਪਰੇ ਹਨ। ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ (ਦੀ ਯਾਦ) ਵਿਚ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ (ਉਸ ਦੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ) ਪਰਗਟ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਰਜ਼ਾ ਦੇ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਹੁਕਮ ਪਛਾਣ ਲੈਂਦਾ ਹੈ (ਤੇ ਸਮਝ ਲੈਂਦਾ ਹੈ ਕਿ) ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਪੈਦਾ ਕਰਦਾ ਹੈ ਤੇ ਆਪ ਹੀ (ਆਪਣੇ ਵਿਚ) ਲੀਨ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਤੇਰੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ (ਦੀ ਦਾਤਿ) ਗੁਰੂ ਤੋਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਲਈ ਹੈ, ਤੂੰ ਉਸ ਦੇ ਮਨ ਵਿਚ ਆ ਵੱਸਦਾ ਹੈਂ ਤੇ ਅੰਤ ਸਮੇ ਭੀ ਉਸ ਦਾ ਸਾਥੀ ਬਣਦਾ ਹੈਂ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਉਸ ਵਰਗਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਨਹੀਂ। (ਉਸ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਅਰਦਾਸ ਕਰੋ ਤੇ ਆਖੋ-) ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਵਿਚ ਜੁੜਿਆਂ (ਲੋਕ ਪਰਲੋਕ ਵਿਚ) ਆਦਰ ਮਿਲਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਅਦ੍ਰਿਸ਼ਟ ਰਚਨਹਾਰ! ਤੂੰ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈਂ ਤੇ ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਦਾ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਹੈਂ। ਇਕੋ ਸਿਰਜਣਹਾਰ ਹੀ (ਸਾਰੇ ਜਗਤ ਦਾ) ਮਾਲਕ ਹੈ, ਉਸ ਨੇ (ਜੰਮਣਾ ਤੇ ਮਰਨਾ) ਦੋ ਰਸਤੇ ਚਲਾਏ ਹਨ। (ਉਸੇ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਅਨੁਸਾਰ ਜਗਤ ਵਿਚ) ਝਗੜੇ ਵਧਦੇ ਹਨ। ਦੋਵੇਂ ਰਸਤੇ ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਹੀ ਤੋਰੇ ਹਨ, ਸਾਰੇ ਜੀਵ ਉਸੇ ਦੇ ਹੁਕਮ ਵਿਚ ਹਨ, (ਉਸੇ ਦੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ) ਜਗਤ ਜੰਮਦਾ ਤੇ ਮਰਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। (ਜੀਵ ਨਾਮ ਨੂੰ ਭੁਲਾ ਕੇ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਦਾ) ਜ਼ਹਰ-ਰੂਪ ਭਾਰ ਆਪਣੇ ਸਿਰ ਉਤੇ ਇਕੱਠਾ ਕਰੀ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, (ਤੇ ਇਹ ਨਹੀਂ ਸਮਝਦਾ ਕਿ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਭੀ ਸਾਥੀ-ਮਿੱਤਰ ਨਹੀਂ ਬਣ ਸਕਦਾ। ਜੀਵ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ) ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ (ਜਗਤ ਵਿਚ) ਆਉਂਦਾ ਹੈ, (ਪਰ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ ਫਸ ਕੇ ਉਸ) ਹੁਕਮ ਨੂੰ ਸਮਝਦਾ ਨਹੀਂ। ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਜੀਵ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ (ਸਿੱਧੇ ਰਾਹ ਪਾ ਕੇ) ਸਵਾਰਨ ਦੇ ਸਮਰਥ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਵਿਚ ਜੁੜਿਆਂ ਇਹ ਪਛਾਣ ਆਉਂਦੀ ਹੈ ਕਿ ਜਗਤ ਦਾ ਮਾਲਕ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈ ਤੇ ਸਭ ਦਾ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਹੈ ॥੩॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਭਗਤੀ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਬੰਦੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਹਜ਼ੂਰੀ ਵਿਚ ਸੋਭਦੇ ਹਨ, ਕਿਉਂਕਿ ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਉਹ ਆਪਣੇ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਸੋਹਣਾ ਬਣਾ ਲੈਂਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਬੰਦੇ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਵਾਲੀ ਬਾਣੀ ਆਪਣੀ ਜੀਭ ਨਾਲ ਉਚਾਰਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਜੀਵ ਨੂੰ ਉਸ ਬਾਣੀ ਨਾਲ ਇਕ-ਰਸ ਕਰ ਲੈਂਦੇ ਹਨ। ਭਗਤ-ਜਨ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ ਨਾਲ ਜੀਭ ਨੂੰ ਰਸਾ ਲੈਂਦੇ ਹਨ, ਨਾਮ ਵਿਚ ਜੁੜ ਕੇ (ਨਾਮ ਵਾਸਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ) ਪਿਆਸ ਵਧਦੀ ਹੈ, ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਉਹ ਪ੍ਰਭੂ-ਨਾਮ ਤੋਂ ਸਦਕੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ (ਨਾਮ ਦੀ ਖ਼ਾਤਰ ਹੋਰ ਸਭ ਸਰੀਰਕ ਸੁਖ ਕੁਰਬਾਨ ਕਰਦੇ ਹਨ)। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਜਦੋਂ (ਭਗਤ ਜਨ) ਤੇਰੇ ਮਨ ਵਿਚ ਪਿਆਰੇ ਲੱਗਦੇ ਹਨ, ਤਾਂ ਉਹ ਗੁਰੂ-ਪਾਰਸ ਨਾਲ ਛੁਹ ਕੇ ਆਪ ਭੀ ਪਾਰਸ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ (ਹੋਰਨਾਂ ਨੂੰ ਪਵਿਤ੍ਰ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਜੋਗੇ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ)। ਜੇਹੜੇ ਬੰਦੇ ਆਪਾ-ਭਾਵ ਦੂਰ ਕਰਦੇ ਹਨ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਉਹ ਆਤਮਕ ਦਰਜਾ ਮਿਲ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਜਿਥੇ ਆਤਮਕ ਮੌਤ ਅਸਰ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੀ। ਪਰ ਅਜੇਹਾ ਕੋਈ ਵਿਰਲਾ ਹੀ ਗੁਰੂ ਦੇ ਦਿੱਤੇ ਗਿਆਨ ਦੀ ਵਿਚਾਰ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਬੰਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਭਗਤੀ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਬੰਦੇ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਸੋਭਾ ਪਾਂਦੇ ਹਨ, ਉਹ (ਆਪਣੇ ਸਾਰੇ ਜੀਵਨ ਵਿਚ) ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ ਦਾ ਹੀ ਵਣਜ ਕਰਦੇ ਹਨ ॥੪॥ ਜਦੋਂ ਤਕ ਮੈਂ ਮਾਇਆ ਵਾਸਤੇ ਭੁੱਖਾ ਪਿਆਸਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹਾਂ, ਤਦ ਤਕ ਮੈਂ ਕਿਸੇ ਭੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਪਹੁੰਚ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। (ਮਾਇਆ ਦੀ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਦੂਰ ਕਰਨ ਦਾ ਇਲਾਜ) ਮੈਂ ਜਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਗੁਰੂ ਤੋਂ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ (ਤੇ ਉਸ ਦੀ ਸਿੱਖਿਆ ਅਨੁਸਾਰ) ਮੈਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰਦਾ ਹਾਂ (ਨਾਮ ਹੀ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਦੂਰ ਕਰਦਾ ਹੈ)। ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈ ਕੇ ਮੈਂ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਨਾਮ ਸਿਮਰਦਾ ਹਾਂ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ (ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ) ਉਚਾਰਦਾ ਹਾਂ, ਤੇ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਨਾਲ ਸਾਂਝ ਪਾਂਦਾ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਹਰ ਰੋਜ਼ ਉਸ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਨਾਮ ਮੂੰਹੋਂ ਬੋਲਦਾ ਹਾਂ ਜੋ ਦੀਨਾਂ ਦਾ ਸਹਾਰਾ ਹੈ ਜੋ ਦਇਆ ਦਾ ਸੋਮਾ ਹੈ ਤੇ ਜਿਸ ਉਤੇ ਮਾਇਆ ਦਾ ਪ੍ਰਭਾਵ ਨਹੀਂ ਪੈ ਸਕਦਾ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਹਜ਼ੂਰੀ ਤੋਂ ਹੀ ਨਾਮ ਸਿਮਰਨ ਦੀ ਕਰਨ-ਜੋਗ ਕਾਰ ਕਰਨ ਦਾ ਹੁਕਮ ਦੇ ਦਿੱਤਾ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਆਪਣੇ ਮਨ ਨੂੰ (ਮਾਇਆ ਵਲੋਂ) ਮਾਰ ਕੇ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਤੋਂ ਬਚ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਨਾਮ ਹੀ ਮਿੱਠਾ* *ਤੇ ਹੋਰ ਸਭ ਰਸਾਂ ਨਾਲੋਂ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਲੱਗਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਨੇ ਨਾਮ ਸਿਮਰਨ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਮਾਇਆ ਦੀ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ (ਆਪਣੇ ਅੰਦਰੋਂ) ਦੂਰ ਕਰ ਲਈ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ॥੫॥੨॥
रामकली महला ५ ॥ अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै बैरी सगले साधे ॥ जिनि बैरी है इहु जगु लूटिआ ते बैरी लै बाधे ॥१॥ सतिगुरु परमेसरु मेरा ॥ अनिक राज भोग रस माणी नाउ जपी भरवासा तेरा ॥१॥ रहाउ ॥ चीति न आवसि दूजी बाता सिर ऊपरि रखवारा ॥ बेपरवाहु रहत है सुआमी इक नाम कै आधारा ॥२॥ पूरन होइ मिलिओ सुखदाई ऊन न काई बाता ॥ ततु सारु परम पदु पाइआ छोडि न कतहू जाता ॥३॥ बरनि न साकउ जैसा तू है साचे अलख अपारा ॥ अतुल अथाह अडोल सुआमी नानक खसमु हमारा ॥४॥५॥
अर्थ: हे भाई! मेरा तो गुरू रखवाला है, परमात्मा रक्षक है (वही) मुझे कामादिक वैरियों से बचाने वाला है। हे प्रभू! मुझे तेरा ही आसरा है (मेहर कर) मैं तेरा नाम जपता रहूँ (नाम की बरकति से ऐसा प्रतीत होता है कि) मैं राज (-पाट) के अनेकों भोगों के रस ले रहा हूँ।1। रहाउ। हे भाई! प्यारे प्रभू ने जिस मनुष्य को अपने चरणों से लगा लिया, उसके उसने (कामादिक) सारे ही वैरी वश में कर दिए। (कामादिक) जिस जिस वैरी ने ये जगत लूट लिया है, (प्रभू ने उसके) वह वैरी पकड़ के बाँध दिए।1। हे भाई! परमात्मा (जिस मनुष्य के) सिर पर रखवाला बनता है, उस मनुष्य के चिक्त में (परमात्मा के नाम के बिना, काम आदि का) कोई फुरना उठता ही नहीं। हे मालिक प्रभू! सिर्फ तेरे नाम के आसरे वह मनुष्य (दुनिया की अन्य गरजों से) बेपरवाह रहता है।2। हे भाई! जिसको सारे सुख देने वाला प्रभू मिल जाता है, वह (ऊँचे आत्मिक गुणों से) भरपूर हो जाता है। वह किसी बात से मुथाज नहीं रहता। वह मनुष्य जगत के मूल-प्रभू को पा लेता है, वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा पा लेता है, और, इसको छोड़ के किसी ओर तरफ नहीं भटकता।3। हे सदा कायम रहने वाले! हे अलख! हे बेअंत! मैं बयान नहीं कर सकता कि तू कैसा है । हे नानक! (कह-) हे बेमिसाल प्रभू! हे अथाह! हे अडोल मालिक! तू ही मेरा पति है।4।5।
ਅੰਗ : 884
ਰਾਮਕਲੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਅੰਗੀਕਾਰੁ ਕੀਆ ਪ੍ਰਭਿ ਅਪਨੈ ਬੈਰੀ ਸਗਲੇ ਸਾਧੇ ॥ ਜਿਨਿ ਬੈਰੀ ਹੈ ਇਹੁ ਜਗੁ ਲੂਟਿਆ ਤੇ ਬੈਰੀ ਲੈ ਬਾਧੇ ॥੧॥ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪਰਮੇਸਰੁ ਮੇਰਾ ॥ ਅਨਿਕ ਰਾਜ ਭੋਗ ਰਸ ਮਾਣੀ ਨਾਉ ਜਪੀ ਭਰਵਾਸਾ ਤੇਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਚੀਤਿ ਨ ਆਵਸਿ ਦੂਜੀ ਬਾਤਾ ਸਿਰ ਊਪਰਿ ਰਖਵਾਰਾ ॥ ਬੇਪਰਵਾਹੁ ਰਹਤ ਹੈ ਸੁਆਮੀ ਇਕ ਨਾਮ ਕੈ ਆਧਾਰਾ ॥੨॥ ਪੂਰਨ ਹੋਇ ਮਿਲਿਓ ਸੁਖਦਾਈ ਊਨ ਨ ਕਾਈ ਬਾਤਾ ॥ ਤਤੁ ਸਾਰੁ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਇਆ ਛੋਡਿ ਨ ਕਤਹੂ ਜਾਤਾ ॥੩॥ ਬਰਨਿ ਨ ਸਾਕਉ ਜੈਸਾ ਤੂ ਹੈ ਸਾਚੇ ਅਲਖ ਅਪਾਰਾ ॥ ਅਤੁਲ ਅਥਾਹ ਅਡੋਲ ਸੁਆਮੀ ਨਾਨਕ ਖਸਮੁ ਹਮਾਰਾ ॥੪॥੫॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ! ਮੇਰਾ ਤਾਂ ਗੁਰੂ ਰਾਖਾ ਹੈ, ਪਰਮਾਤਮਾ ਰਾਖਾ ਹੈ (ਉਹੀ ਮੈਨੂੰ ਕਾਮਾਦਿਕ ਵੈਰੀਆਂ ਤੋਂ ਬਚਾਣ ਵਾਲਾ ਹੈ। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਮੈਨੂੰ ਤੇਰਾ ਹੀ ਆਸਰਾ ਹੈ (ਮੇਹਰ ਕਰ) ਮੈਂ ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਜਪਦਾ ਰਹਾਂ (ਨਾਮ ਦੀ ਬਰਕਤ ਨਾਲ ਇਉਂ ਜਾਪਦਾ ਹੈ ਕਿ) ਮੈਂ ਰਾਜ ਦੇ ਅਨੇਕਾਂ ਭੋਗ ਤੇ ਰਸ ਮਾਣ ਰਿਹਾ ਹਾਂ।੧।ਰਹਾਉ।
ਹੇ ਭਾਈ! ਪਿਆਰੇ ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਚਰਨੀਂ ਲਾ ਲਿਆ, ਉਸ ਦੇ ਉਸ ਨੇ (ਕਾਮਾਦਿਕ) ਸਾਰੇ ਹੀ ਵੈਰੀ ਵੱਸ ਵਿਚ ਕਰ ਦਿੱਤੇ। (ਕਾਮਾਦਿਕ) ਜਿਸ ਜਿਸ ਵੈਰੀ ਨੇ ਇਹ ਜਗਤ ਲੁੱਟ ਲਿਆ ਹੈ, (ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਉਸ ਦੇ) ਉਹ ਸਾਰੇ ਵੈਰੀ ਫੜ ਕੇ ਬੰਨ੍ਹ ਦਿੱਤੇ।੧। ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ (ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦੇ) ਸਿਰ ਉੱਤੇ ਰਾਖਾ ਬਣਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਚਿੱਤ ਵਿਚ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ, ਕਾਮਾਦਿਕ ਦਾ) ਕੋਈ ਹੋਰ ਫੁਰਨਾ ਉਠਦਾ ਹੀ ਨਹੀਂ। ਹੇ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ! ਸਿਰਫ਼ ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਦੇ ਆਸਰੇ ਉਹ ਮਨੁੱਖ (ਦੁਨੀਆ ਦੀਆਂ ਹੋਰ ਗ਼ਰਜ਼ਾਂ ਵਲੋਂ) ਬੇ-ਪਰਵਾਹ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ।੨। ਹੇ ਭਾਈ! ਜਿਸ ਨੂੰ ਸਾਰੇ ਸੁਖ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਪ੍ਰਭੂ ਮਿਲ ਪੈਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ (ਉੱਚੇ ਆਤਮਕ ਗੁਣਾਂ ਨਾਲ) ਭਰਪੂਰ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਕਿਸੇ ਗੱਲੇ ਮੁਥਾਜ ਨਹੀਂ ਰਹਿੰਦਾ। ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਜਗਤ ਦੇ ਮੂਲ-ਪ੍ਰਭੂ ਨੂੰ ਲੱਭ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਜੀਵਨ ਦਾ ਅਸਲ ਮਨੋਰਥ ਹਾਸਲ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਸਭ ਤੋਂ ਉੱਚਾ ਆਤਮਕ ਦਰਜਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਤੇ, ਇਸ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਪਾਸੇ ਨਹੀਂ ਭਟਕਦਾ।੩।
ਹੇ ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ! ਹੇ ਅਲੱਖ! ਹੇ ਬੇਅੰਤ! ਮੈਂ ਬਿਆਨ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ ਕਿ ਤੂੰ ਕਿਹੋ ਜਿਹਾ ਹੈਂ। ਹੇ ਨਾਨਕ! (ਆਖ-) ਹੇ ਬੇ-ਮਿਸਾਲ ਪ੍ਰਭੂ! ਹੇ ਅਥਾਹ! ਹੇ ਅਡੋਲ ਮਾਲਕ! ਤੂੰ ਹੀ ਮੇਰਾ ਖਸਮ ਹੈਂ।੪।੫।
धनासरी मः ५ ॥ जब ते दरसन भेटे साधू भले दिनस ओइ आए ॥ महा अनंदु सदा करि कीरतनु पुरख बिधाता पाए ॥१॥ अब मोहि राम जसो मनि गाइओ ॥ भइओ प्रगासु सदा सुखु मन महि सतिगुरु पूरा पाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ गुण निधानु रिद भीतरि वसिआ ता दूखु भरम भउ भागा ॥ भई परापति वसतु अगोचर राम नामि रंगु लागा ॥२॥ चिंत अचिंता सोच असोचा सोगु लोभु मोहु थाका ॥ हउमै रोग मिटे किरपा ते जम ते भए बिबाका ॥३॥ गुर की टहल गुरू की सेवा गुर की आगिआ भाणी ॥ कहु नानक जिनि जम ते काढे तिसु गुर कै कुरबाणी ॥४॥४॥
अर्थ :-हे भाई ! मुझे पूरा गुरु मिल गया है, (इस लिए उस की कृपा के साथ) अब मैं परमात्मा की सिफ़त-सालाह (अपने) मन में गा रहा हूँ, (मेरे अंदर आत्मिक जीवन का) रोशनी हो गई है, मेरे मन में सदा आनंद बना रहता है।1।रहाउ। हे भाई ! जब से गुरु के दर्शन प्राप्त हुए हैं, मेरे इस प्रकार के अच्छे दिन आ गए कि परमात्मा की सिफ़त-सालाह कर कर के सदा मेरे अंदर सुख बना रहता है, मुझे सर्व-व्यापक करतार मिल गया है।1। (हे भाई ! गुरु की कृपा के साथ जब से) गुणों का खजाना परमात्मा मेरे हृदय में आ बसा है , तब से मेरा दु:ख भ्रम डर दूर हो गया है। परमात्मा के नाम में मेरा प्यार बन गया है, मुझे (वह उॅतम) चीज प्राप्त हो गई है जिस तक ज्ञान-इन्द्रियों की पहुंच नहीं हो सकती।2। (हे भाई ! गुरु के दर्शन की बरकत के साथ) मैं सभी चिंताँ और सोचों से बच गया हूँ, (मेरे अंदर से) गम खत्म हो गया है, लोभ खत्म हो गया है, मोह दूर हो गया है। (गुरु की) कृपा के साथ (मेरे अंदर से) हऊमै आदि रोग मिट गए हैं, मुझे यम-राज से भी कोई डर नहीं लगता।3। हे भाई ! अब मुझे गुरु की टहल-सेवा, गुरु की रजा ही प्यारी लगती है। हे नानक ! बोल-(हे भाई ! मैं उस गुरु से सदके जाता हूँ, जिस ने मुझे यमों से बचा लिया है।4।4।