अमृत वेले का हुक्मनामा – 2 फरवरी 2024
सलोकु मः ३ ॥ रैणाइर माहि अनंतु है कूड़ी आवै जाइ ॥ भाणै चलै आपणै बहुती लहै सजाइ ॥ रैणाइर महि सभु किछु है करमी पलै पाइ ॥ नानक नउ निधि पाईऐ जे चलै तिसै रजाइ ॥१॥ मः ३ ॥ सहजे सतिगुरु न सेविओ विचि हउमै जनमि बिनासु ॥ रसना हरि रसु न चखिओ कमलु न होइओ परगासु ॥ बिखु खाधी मनमुखु मुआ माइआ मोहि विणासु ॥ इकसु हरि के नाम विणु ध्रिगु जीवणु ध्रिगु वासु ॥ जा आपे नदरि करे प्रभु सचा ता होवै दासनि दासु ॥ ता अनदिनु सेवा करे सतिगुरू की कबहि न छोडै पासु ॥ जिउ जल महि कमलु अलिपतो वरतै तिउ विचे गिरह उदासु ॥ जन नानक करे कराइआ सभु को जिउ भावै तिव हरि गुणतासु ॥२॥ पउड़ी ॥ छतीह जुग गुबारु सा आपे गणत कीनी ॥ आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपि मति दीनी ॥ सिम्रिति सासत साजिअनु पाप पुंन गणत गणीनी ॥ जिसु बुझाए सो बुझसी सचै सबदि पतीनी ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे बखसि मिलाई ॥७॥
अर्थ: (इस संसार-) समुंद्र में बेअंत प्रभू स्वयं बस रहा है, पर (उस ‘अनंत’ को छोड़ के) नाशवंत पदार्थों में लगी हुई जिंद पैदा होती-मरती रहती है। जो मनुष्य अपनी मर्जी के अनुसार चलता है उसको बहुत दुख प्राप्त होता है (क्योंकि वह ‘अनंत’ को छोड़ के नाशवंत पदार्थों के पीछे दौड़ता है); सब कुछ इस सागर में मौजूद है, पर प्रभू की मेहर से मिलता है। हे नानक! मनुष्य को सारे ही नौ खजाने मिल जाते हैं अगर मनुष्य (इस सागर में व्यापक प्रभू की) रजा में चले।1। जो मनुष्य सिदक-श्रद्धा से सतिगुरू के हुकम में नहीं चला, वह अहंकार में (रह के) (जगत में) जनम ले के (जीवन) वयर्थ गवा गया; जिसने जीभ से प्रभू के नाम का आनंद नहीं लिया उसका हृदय-रूप कमल पुष्प नहीं खिला। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (विकारों की) विष खाता रहा, (असल जीवन की ओर से) मरा ही रहा और माया के मोह में उसकी जिंदगी तबाह हो गई। एक प्रभू का नाम सिमरन बिना (जगत में) जीना-बसना धिक्कारयोग्य है। जब सच्चा प्रभू स्वयं ही मेहर की नजर करता है तो मनुष्य (प्रभू के) सेवकों का सेवक बन जाता है, नित्य सतिगुरू के हुकम में चलता है, कभी गुरू का पल्ला नहीं छोड़ता, (फिर) वह गृहस्त में रहता हुआ भी ऐसे उपराम सा रहता है जैसे पानी में (उगा हुआ) कमल-फूल (पानी के असर से) बचा रहता है। हे दास नानक! जैसे गुणों के खजाने परमात्मा को अच्छा लगता है वैसे हरेक जीव उसका कराया हुआ (जो वह करवाना चाहता है) ही करता है।2। पहले जब प्रभू निर्गुण रूप में थे तब) कई युगों तक (बहुत समय) अंधकार था (अर्थात, तब क्या स्वरूप था- ये बात बताई नहीं जा सकती), (फिर सरगुण रूप रच के) उसने स्वयं ही (जगत-रचना की) विचार की; उस (प्रभू) ने स्वयं ही सृष्टि पैदा की और स्वयं ही (जीवों को) बुद्धि दी; (इस तरह मनुष्य) बुद्धिवानों के द्वारा उसने स्वयं ही स्मृतियाँ और शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तकें) बनाए, (उनमें) पाप और पुन्य का निखेड़ा किया (भाव, बताया कि ‘पाप’ क्या है और ‘पुन्य’ क्या है)। जिस मनुष्य को (ये सारा राज़) समझाता है वही समझता है, उस मनुष्य का मन गुरू के सच्चे शबद में श्रद्धा धार लेता है। हरेक कार्य में प्रभू स्वयं ही स्वयं मौजूद है, स्वयं ही मेहर करके (जीव को अपने में) मिलाता है।7।