अमृत वेले का हुक्मनामा – 8 जुलाई 2023
बिलावलु महला १ ॥ मन का कहिआ मनसा करै ॥ इहु मनु पुंनु पापु उचरै ॥ माइआ मदि माते त्रिपति न आवै ॥ त्रिपति मुकति मनि साचा भावै ॥१॥ तनु धनु कलतु सभु देखु अभिमाना ॥ बिनु नावै किछु संगि न जाना ॥१॥ रहाउ ॥ कीचहि रस भोग खुसीआ मन केरी ॥ धनु लोकां तनु भसमै ढेरी ॥ खाकू खाकु रलै सभु फैलु ॥ बिनु सबदै नही उतरै मैलु ॥२॥ गीत राग घन ताल सि कूरे ॥ त्रिहु गुण उपजै बिनसै दूरे ॥ दूजी दुरमति दरदु न जाइ ॥ छूटै गुरमुखि दारू गुण गाइ ॥३॥ धोती ऊजल तिलकु गलि माला ॥ अंतरि क्रोधु पड़हि नाट साला ॥ नामु विसारि माइआ मदु पीआ ॥ बिनु गुर भगति नाही सुखु थीआ ॥४॥ सूकर सुआन गरधभ मंजारा ॥ पसू मलेछ नीच चंडाला ॥ गुर ते मुहु फेरे तिन्ह जोनि भवाईऐ ॥ बंधनि बाधिआ आईऐ जाईऐ ॥५॥ गुर सेवा ते लहै पदारथु ॥ हिरदै नामु सदा किरतारथु ॥ साची दरगह पूछ न होइ ॥ माने हुकमु सीझै दरि सोइ ॥६॥ सतिगुरु मिलै त तिस कउ जाणै ॥ रहै रजाई हुकमु पछाणै ॥ हुकमु पछाणि सचै दरि वासु ॥ काल बिकाल सबदि भए नासु ॥७॥ रहै अतीतु जाणै सभु तिस का ॥ तनु मनु अरपै है इहु जिस का ॥ ना ओहु आवै ना ओहु जाइ ॥ नानक साचे साचि समाइ ॥८॥२॥
अर्थ: (प्रभु-नाम से बिसरे हुए मनुख की) बुद्धि (भी) मन के कहे अनुसार चलती है, और यह मन केवल यही बातें सोचता है की (शास्त्रों की मर्यादा अनुसार) पुन्य क्या है और पाप क्या है। माया के नशे में मस्त हुए मनुख को (माया की तरफ) से सब्र नहीं होता। माया का सब्र और माया के मोह से खलासी तभी होती है जब मनुख को सदा-थिर रहने वाला प्रभु मन में प्यारा लगने लग जाता है॥१॥ हे अभिमानी जीव! देख, यह शरीर, यह धन, यह स्त्री-यह सब (सदा साथ निभने वाले नहीं है)। परमात्मा के नाम के बिना कोई वस्तु (जीव के) साथ नहीं जाती॥१॥रहाउ॥ हम माया के रस का भोग करते हैं, माया की मौज मनाते हैं, (परन्तु मौत आने पर) धन (ओर) लोगों का बन जाता है और यह शारीर मिटटी की ढेरी हो जाता है। यह सारा ही पसारा (अंत) मिटटी में मिल जाता है। (मन पर विषे-विकारों की मैल इकठ्ठा होती रहती है, वह) मैल गुरु के शब्द के बिना नहीं उत्तरती॥२॥ (प्रभू के नाम से टूट के) मनुष्य अनेकों किस्मों के गीत राग व ताल आदि में मन परचाता है पर ये सब झूठे उद्यम हैं (क्योंकि नाम के बिना जीव) तीन गुणों के असर तले पैदा होता मरता रहता है और (प्रभू-चरणों से) विछुड़ा रहता है। (इन गीतों-रागों की सहायता से जीव की) और चाहत (ज्यादा से ज्यादा मिलने के लालच, झाक) व दुमर्ति दूर नहीं होती, आत्मिक रोग नहीं जाता। (इस दूसरी झाक व दुमर्ति से, आत्मिक रोग से वह मनुष्य) खलासी पा लेता है जो गुरू के सन्मुख हो के परमात्मा के गुण गाता है (ये सिफत-सालाह ही इन रोगों का) दारू है। जो मनुष्य सफेद धोती पहनते हैं (माथे पर) तिलक लगाते हैं, गले में माला डालते हैं और (वेद आदि के मंत्र) पढ़ते हैं पर उनके अंदर क्रोध प्रबल है उनका उद्यम यूँ ही है जैसे किसी नाट्य-घर में (नाट्य-विद्या की सिखलाई कर करा रहे हैं)। जिन मनुष्यों ने परमात्मा का नाम भुला के माया (के मोह) की शराब पी हुई हो, (उनको सुख नहीं हो सकता)। गुरू के बिना प्रभू की भगती नहीं हो सकती, और भगती के बिना आत्मिक आनंद नहीं मिलता।4। जिन लोगों ने अपना मुँह गुरू से मोड़ा हुआ है उन्हें सूअर-कुत्ते-गधे-बिल्ले-पशू-मलेछ-नीच-चण्डाल आदिक की जूनों में घुमाया जाता है। माया के मोह के बंधन में बंधा हुआ मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।5। गुरू की बताई हुई सेवा के द्वारा ही मनुष्य नाम-सरमाया प्राप्त करता है। जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम सदा बसता है वह (जीवन-यात्रा में) सफल हो गया है। परमात्मा की दरगाह में उससे लेखा नहीं मांगा जाता (क्योंकि उसके जिंमें कुछ भी बकाया नहीं निकलता)। जो मनुष्य परमात्मा की रजा को (सिर माथे) मानता है वह परमात्मा के दर पर कामयाब हो जाता है।6। जब मनुष्य को गुरू मिल जाता है तो यह उस परमात्मा के साथ गहरी सांझ बना लेता है, परमात्मा की रजा को समझता है और रज़ा में (राज़ी) रहता है। सदा-स्थिर प्रभू की रजा को समझ के उसके दर पर जगह हासिल कर लेता है। गुरू के शबद के द्वारा उसके जनम-मरण (के चक्र) खत्म हो जाते हैं।7। (सिमरन की बरकति से) जो मनुष्य (अंतरात्मे माया के मोह की ओर से) उपराम रहता है वह हरेक चीज को परमात्मा की (दी हुई) ही समझता है। जिस परमात्मा ने ये शरीर और मन दिया है उसके हवाले करता है।1। हे नानक! वह मनुष्य जनम मरण के चक्कर से बच जाता है, वह सदा-सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।8।2।