संधिआ वेले का हुक्मनामा – 26 सतंबर 2024
जउ हम बांधे मोह फास हम प्रेम बधनि तुम बाधे ॥ अपने छूटन को जतनु करहु हम छूटे तुम आराधे ॥१॥ माधवे जानत हहु जैसी तैसी ॥ अब कहा करहुगे ऐसी ॥१॥ रहाउ ॥ मीनु पकरि फांकिओ अरु काटिओ रांधि कीओ बहु बानी ॥ खंड खंड करि भोजनु कीनो तऊ न बिसरिओ पानी ॥२॥ आपन बापै नाही किसी को भावन को हरि राजा ॥ मोह पटल सभु जगतु बिआपिओ भगत नही संतापा ॥३॥ कहि रविदास भगति इक बाढी अब इह का सिउ कहीऐ ॥ जा कारनि हम तुम आराधे सो दुखु अजहू सहीऐ ॥४॥२॥ {पन्ना 658}
अर्थ: हे माधो! तेरे भक्त जैसा प्यार तेरे साथ करते हैं वह तुझसे छुपा नहीं रह सकता (तू अच्छी तरह जानता है), ऐसी प्रीति के होते हुए तूम जरूर उन्हें मोह से बचाए रखते हो।1। रहाउ।
(सो, हे माधो!) अगर हम मोह के बँधनों में बँधे हुए थे, तो हमने अब तुझे अपने प्यार की रस्सी से बाँध लिया है। हम तो (उस मोह के बँधनों से) तुझे सिमर के निकल आए हैं, तुम हमारे प्यार की जकड़ में से अब कैसे निकलोगे?
(हमारा तेरे साथ प्यार भी वह है जो मछली को पानी के साथ होता है, हमने तो मर के भी तेरी याद नहीं छोड़नी) मछली (पानी में से) पकड़ के टुकड़े-टुकड़े कर दें, हिस्से कर दें और कई प्रकार से पका लें, फिर रक्ती रक्ती करके खा लें, फिर भी उस मछली को पानी नहीं भूलता (जिस खाने वाले के पेट में जाती है उसको भी पानी की प्यास लगा देती है)।2।
जगत का मालिक हरी किसी के पिता की (जद्दी मल्कियत) नहीं है, वह तो प्रेम का बँधा हुआ है। (इस प्रेम से वंचित सारा जगत) मोह के पर्दे में फंसा पड़ा है, पर (प्रभू के साथ प्रेम करने वाले) भक्तों को (इस मोह का) कोई कलेश नहीं होता।3।
रविदास कहता है– (हे माधो!) मैं एक तेरी भक्ति (अपने हृदय में) इतनी दृढ़ की है कि मुझे अब किसी के साथ ये गिला करने की जरूरत नहीं रह गई कि जिस मोह से बचने के लिए मैं तेरा सिमरन कर रहा था, उस मोह का दुख मुझे अब तक सहना पड़ रहा है (भाव, उस मोह का तो अब मेरे अंद रनाम-निशान भी नहीं रह गया)।4।2।