अमृत वेले का हुक्मनामा – 12 मई 2024
बैराड़ी महला ४ ॥ जपि मन हरि हरि नामु नित धिआइ ॥ जो इछहि सोई फलु पावहि फिरि दूखु न लागै आइ ॥१॥ रहाउ ॥ सो जपु सो तपु सा ब्रत पूजा जितु हरि सिउ प्रीति लगाइ ॥ बिनु हरि प्रीति होर प्रीति सभ झूठी इक खिन महि बिसरि सभ जाइ ॥१॥ तू बेअंतु सरब कल पूरा किछु कीमति कही न जाइ ॥ नानक सरणि तुम्हारी हरि जीउ भावै तिवै छडाइ ॥२॥६॥
हे (मेरे मन! सदा प्रभु का नाम सुमिरन कर, प्रभु का धयान धरा कर, (उस प्रभु के दर से) जो कुछ मांगेगा, वोही प्राप्त कर लेगा। कोई दुःख भी आ के तुझे पूह नहीं सकेगा।१।रहाउ। हे मन! जिस सुमिरन की बरकत से परमात्मा से प्रीत बनी रहती है, वह सुमिरन ही जप है, वह सुमिरन ही ताप है, वह सुमिरन ही व्रत है, वह सुमिरन ही पूजा है। प्रभु के चरणों के प्रेम के बिना और (जप-ताप आदि का प्यार झूठा है, एक दिन पल में ही वह प्यार भूल जाता है।१। हे नानक! (कह) हे प्रभु जी, तू सभी ताकतों से भरपूर है, तेरा मूल्य नहीं पाया जा सकता। मैं (नानक) तेरी सरन आया हूँ, जैसे तुझे अच्छा लगे, मुझे अपने चरणों के बिना और और की प्रीत से बचाए रखो।२।६।